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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक हूं, इतना बड़ा राज्य संभाल रहा हूं किन्तु मेरा रस न तो भोगों में है, न राज्य में है, न किसी और पदार्थ में है । जितना पुण्य का फल भोग रहा हूं, उसमें मेरा कोई रस नहीं है | मेरा रस केवल बंधन से छुटकारा पाने में है । दिनरात मेरे मस्तिष्क में बंधन-मुक्ति का प्रश्न चक्कर लगाता रहता है इसलिए सारे जीवन-व्यवहार को चलाते हुए भी मैं उसमें लिप्त नहीं हूं।' घटना से जुड़ी सचाई
इस घटना से यह सचाई अभिव्यक्त होती है-पुण्य का फल भोगते समय जिस व्यक्ति का भोगों के साथ रस नहीं जुड़ता और पाप का फल भोगते समय दुःखों और कष्टों के साथ एक वेदना, तड़प, आक्रोश और भय का भाव नहीं जुड़ता, वह व्यक्ति धर्म की कला को जानता है, बन्धन से छुटकारा पाने की कला को जानता है।
लौकिक धारणा है-व्यक्ति मनुष्य का जीवन जीए तो उसे सुख का जीवन जीना चाहिए, उसे सारे पदार्थों को भोगना चाहिए । यह तर्क दिया जाता है भगवान् ने पदार्थ बनाए किसलिए हैं ? कुछ लोग अति तर्क में भी चले जाते हैं । उनसे कहा जाए-मांस नहीं खाना चाहिए । उत्तर मिलेगा-भगवान ने मांस बनाया किसलिए है ? संतजन त्याग का उपदेश देते हैं । जो लोग भोग में लिप्त हैं, वे इस उपदेश का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं-संतों का यह उपदेश-त्याग करो, इसका त्याग करो, उसका त्याग करो-मान लें तो इन भोग्य पदार्थों का क्या होगा ? यदि हम इन सब भोगों को नहीं भोगें तो पदार्थ किसलिए बनाए जाते हैं ?' इस तर्क के साथ इस तथ्य को जानना जरूरी है-पुण्य के साथ-साथ पाप का पल भी जुड़ा हुआ है । यदि पुण्य के फल को अधिकाधिक भोगना है तो पाप-फल को भोगने की तैयारी भी होनी चाहिए । बाएं हाथ में घोड़ा है तो दाएं हाथ में गधा भी हो सकता है | हमारी दुनिया का यह नियम नहीं है कि हाथ में केवल घोड़ा ही आए, गधा न आए । सुख भोगने के लिए जितनी अकुलाहट है, दुःख भोगने की भी उतनी ही तैयार रहनी चाहिए । सुखी होना दुःख को आमंत्रण देना है .
एक सुन्दर मार्ग बतलाया गया-जब पुण्य का विपाक आता है, उदय
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