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________________ कर्म-फल भोगने की कला है सामायिक १५५ आता है तब सुविधा भी मिलती है। व्यक्ति उसे भोगता है किन्तु वह उसमें इतना आसक्त न बने, सुख भोगने में ही लिप्त न हो जाए, जिससे पुण्य के फल का भोग सघन पाप का कारण बने । बहुत लोग ऐसे होते हैं, जो बड़े सुख को ही नहीं, खाने-पीने जैसे छोटे सुख को भी नहीं छोड़ सकते । सुख को छोड़ा नहीं जा सकता पर सुख भोग के समय यह चेतना जाग जाए- पुण्य के सुख भोग कर सुखी होना दुःख को आमंत्रण देना है। यह बोध आवश्यक है । हम पुण्य के उदय होने पर प्रत्येक सुख को भोगें ही नहीं और पाप का परिणाम आए तो उसे भी नहीं भोगें । अशुभ कर्म कैसे भोगें ? व्यक्ति को क्रोध आता है। क्रोध अशुभ कर्म का विपाक है । बाहरी निमित्त मिलता है और क्रोध उभर आता है । कोई निमित्त बना, किसी ने गाली दी, थप्पड़ मारा और क्रोध उभर आया। इसका मूल कारण है-मोहनीय कर्म का विपाक । क्रोध चाहे निमित्त से उभरे या उपादान के कारण उसे न भोगना धर्म की कला है। अशुभ कर्म का विपाक आए और क्रोध न आए, यह है क्रोध को न भोगना, अशुभ कर्म को न भोगना । अशुभ कर्म का विपाक आया और क्रोध कर लिया, यह है अशुभ कर्म को भोग लेना । हृदय रोग : भावात्मक कारण आज अनेक नई-नई बातों पर विज्ञान की खोजें हो रही हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है । हृदय-रोग के बारे में कुछ तथ्य सामने आए हैं । हृदय रोग भी अशुभ कर्म के विपाक को भोगने से होता है । क्रोध, आक्रामक प्रतिस्पर्धा- ये हृदय रोग के मुख्य कारण बनते हैं। हृदय रोग के और अनेक कारण हैं किन्तु भावनात्मक कारणों में ये मुख्य कारण बनते हैं । उसका एक कारण है असहिष्णुता । किसी ने अप्रिय बात कह दी, व्यक्ति ने अपने मन में गांठ बांध ली और उसने सामने वाले व्यक्ति को क्षमा नहीं किया। आज की यह मुख्य समस्या है - क्षमा करना कोई जानता ही नहीं है । पहले क्षमा I करना धर्म का तत्व था, आज यह चिकित्सात्मक तत्व बन गया है । जो हृदय रोग या कैंसर जैसी बीमारियों से बचना चाहता है, उसे क्षमा करना सीखना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003047
Book TitleSamayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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