Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 4
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 12
________________ ६ o नेपाल की तराई में ही स्थित रहे। क्योंकि वहाँ उनकी ध्यान साधना के जो निर्देश हैं वे तित्थोगाली १९ (लगभग ५वीं शती) और चूर्णि साहित्य ( लगभग ७वीं शती) के होने से इन कथानकों की अपेक्षा न केवल प्राचीन हैं, अपितु प्रामाणिक भी लगते हैं। पुनः ध्यान साधना का यह उल्लेख बारह वर्षीय दुष्काल के पश्चात् पाटलिपुत्र की स्थूलभद्र की वाचना के समय का है, अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण जाने के उल्लेख प्रामाणिक नहीं हैं। इसमें सत्यांश केवल इतना ही प्रतीत होता है कि भद्रबाहु तो अपनी वृद्धावस्था के कारण उत्तर भारत के मगध एवं तराई प्रदेश में स्थित रहे, किन्तु उन्होंने अपने शिष्य परिवार को अवश्य दक्षिण में भेजा था। निर्ग्रन्थ मुनिसंघ की लंका एवं तमिल प्रदेश में ई० पू० में उपस्थिति के अभिलेखीय एवं बौद्ध साहित्य के संकेत भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं । २१ पुनः वड्डमाणु (आन्ध्र प्रदेश) में हुई खुदाई में गोदासगण का अभिलेखीय साक्ष्य २२ भी इस तथ्य की पुष्टि अवश्य करता है कि भद्रबाहु की शिष्य परम्परा या तो ताम्रलिप्ति से जलमार्ग द्वारा या फिर बंगाल और उड़ीसा के स्थलमार्ग से आन्ध्रप्रदेश होकर लंका एवं तमिलनाडु पहुँची थी। यहाँ इसी प्रसंग में श्रवणबेलगोला स्थित चन्द्रगिरि पर्वत एवं पार्श्वनाथ वसति के अभिलेखों की प्रामाणिकता की चर्चा करना भी अपेक्षित है | श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर शक संवत् ५७२ अर्थात् विक्रम संवत् ७०७ ईस्वी सन् ६५० का शिलालेख है२३ उसमें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के उल्लेख हैं । जहाँ तक चन्द्रगिरि के अभिलेख का प्रश्न है, उसमें न तो भद्रबाहु को श्रुतकेवली कहा है और न चन्द्रगुप्त को मौर्यवंशीय । अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि इसमें उल्लेखित भद्रबाहु को श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त को चन्द्रगुप्त मौर्य माना जाये या भद्रबाहु को वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त को चन्द्रगुप्त नामक कोई गुप्तवंशीय राजा माना जाये। पार्श्वनाथवसति के इससे भी ५० वर्ष पूर्व शक संवत् ५३३ या ई० सन् ६०० के एक अभिलेख में स्पष्ट रूप से श्रुतकेवली भद्रबाहु और नैमित्तिक भद्रबाहु ऐसे दो भद्रबाहु का उल्लेख है । २४ इसमें श्रुतकेवली भद्रबाहु के पश्चात् विशाख आदि सात आचार्यों का उल्लेख करके फिर गुरु परम्परा के क्रम से भद्रबाहु स्वामी का उल्लेख है और उनके आदेश से सर्वसंघ का उज्जैन से दक्षिण पथ जाने का निर्देश है— इससे ऐसा प्रतीत होता है, ये भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु होंगे । वराहमिहिर के पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति के आधार पर उनका काल शक संवत् ४३७। ई० सन् ५०५ । विक्रम सं० ५६२ सिद्ध होता है २५ अतः ये अभिलेखीय उल्लेख नैमित्तिक भद्रबाहु से सम्बन्धित हो सकते हैं और इसमें उल्लेखित चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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