Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 06 Dashvaikaalik Niryukti Evam Churni Aagam 42
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 340
________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [[१-५] गाथा ||४५४ ४६०|| दीप अनुक्रम [४७१४८४] भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [ ४५४-४६०/ ४७१-४८४], निर्युक्तिः [ ३२९... / ३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि श्रीदश वैकालिक चूर्णी. विनयाध्य ने ॥३२७॥ * परलोगहियं चोइज्जइ तं पेहयति, आयरियउवज्झायादओ य आदरेण हिओवदेसगत्तिकाऊण सुस्सह, वमेव पुणो तेसिं हिओवएसं संमं अडियतीति, अद्वेिति नाम अहियतित्ति वा आयरइत्ति वा एगडा, 'ण व माणमरण मज्जई' न मा ( णं कुण जहा विजयसमाहीए पच्च को मए समानो अण्णोत्ति, आययट्टिए नाम आयओ मोक्खो मण्ण, ते आययं कखयतीति आयए, अथवा विणयसमाधीए आययडाए अच्चत्थं आद Get a fauraarataययद्विआ भण्णइ, विषयसमाध भणिया । इदाणि सुयसमाधी भण्णह, जहा - 'सुअं मे भविस्सइत्ति अझाइअवं गगचित्तो भविस्सामिति अज्झाइअव्वयं भवइ, बितियं सुखसमाधीए पदं, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाड़वं भव, पढमं सुतसमाधीए पदं, ॐ अवयं भव, तयं सुयसमाहीए पर्छ, ठिओ पर डाबहस्सामित्ति अज्झाइ अव्ययं भवइ, वउत्थं सुयसमाहीए पयं भवतित्ति ॥ (सूत्रं १८ ) अज्झाइयव्वयं भवइ ' सुयं नाम दुबालसंगे गणिपिढगं, तं मे खाय भविस्संतित्ति एवं आलंचण कार्ड साहुणा अज्झाइयच्वं भवति, एगग्गचित्तं अज्ज्ञाय॑तस्तु भविस्सतित्ति एवं आलंबणं काउं साघुणा अ अज्झाइय भवइ, तहा सुहविरागं जाणमाणो सुहं अप्पा धम्मै ठावेहामित्ति एवं आलंवणं साहुणा काऊण अज्झाइयच्वं भव, सुर्य कमपरिवाढीए, चउत्थमेयं पदं भवइ । भवइ य एत्थ सुयसमाहीए सिलोगो, तजहा-नाणमेगग्गचित्तो, ठिओ अ ठावई परं । सुआणि अहिज्जित्ता, रओ मुअस माही? || ४५६ || अज्झाइए णाणमंतो भवइ, गणणगुणेण एगग्गचित्तो, एगग्गचित्तो य धम्मे निच्चलो, ठिओ सो सम्मं समत्यो परमवि ठावेडंति, नाणाविहाणि य सुयाणि अहिज्जमाणो रओ सुयसमाधीएत्ति । इदाणिं तवसमाधी मण्णइ- चउब्विहा खलु तवसमाही भवइ, तंजद्दा-नो इहलोगट्टयाए तवमहिडिज्जा० ( सूत्रं १९ ) [340] | ४ उद्देशका ॥३२७॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398