Book Title: Rup ka Garv Diwakar Chitrakatha 038
Author(s): Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 7
________________ रूप का गर्व एक वर्ष तक लगातार जंगलों में भटकते हुए एक दिन महेन्द्र ने आकाश में सारस, हंस, बगुले आदि पक्षियों को पूर्व दिशा की ओर जाते देखा। उसने सोचायहाँ आसपास अवश्य कोई विशाल सरोवर होना चाहिए। AMATKARAN पक्षियों के पीछे-पीछे वह सरोवर के किनारे पर पहुंच गया। वहाँ देखा-अनेक सुन्दर तरुणियाँ नाच रही हैं। गीत गा रही हैं। तरुणियों के बालों में तरह-तरह के फूल लगे हैं। घुघल बँधे हैं। कुछ तरूणियाँ मृदंग बजा रही हैं तो कुछ वीणा के स्वर छेड़ रही हैं। और उन तरूणियों के बीच ऊँचे शिला पट पर अत्यन्त रूपवान युवक बैठा है। महेन्द्र एकदम रोमांचित हो गया।। क्या उस चट्टान पर बैठा यह युवक मेरा मित्र ) सनत्कुमार ही है? या कोई), इन्द्रजाल है यह। AR पति उसने-उधर घोड़ा दौड़ा दिया। पास पहुँचकर महेन्द्र ने अपने मित्र को पहचान लिया। वह घोड़े से उतरकर युवक से लिपट गया। Aaeमित्र ! - ओह महेन्द्र तुम दोनों मित्रों की आँखों में आँसुओं की धारा फूट पड़ी। वे एक-दूसरे से लिपट गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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