Book Title: Rup ka Garv Diwakar Chitrakatha 038
Author(s): Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ रूपका गर्व चक्रवर्ती के सामने ही सोने का स्वच्छ थूकदान रखा था। उन्होंने उसमें थूका। HTRAOOD सनत्कुमार ने वापस राजमहल आकर अपना मुख दर्पण में देखा अरे ! मेरे मुख की कांति तो क्षीण हो रही है, मुख मुआयासा लग रहा है। पसीने की गंध आ रही है? तो आँखें आश्चर्य से फटी-सी रह गई। हैं ! यह क्या ? थूक में कीड़े! शरीर की नश्वरता पर विचार करते-करते चक्रवर्ती का मन संसार के भोगों से विरक्त तभी दोनों देव अन्तर्ध्यान हो गये। हो गया। उन्होंने तुरन्त निर्णय लिया अब यह शरीर सनत्कुमार सोचने लगे। सोचते-सोचते रोगग्रस्त होने उनकी चिन्तनधारा बदल गई। से पहले ही (जैसे दीमक हरे-भरे वृक्ष को ।। तप-साधना कर भीतर से खोखला कर देती है। वैसे ही व्याधि शरीर को भीतर ही लेनी चाहिए। भीतर नष्ट कर डालती है। क्या मैं इसी क्षणिक सुन्दरता पर इतना अभिमान कर रहा हूँ। A AM SARAM ww 25 For Private & Personal Use Only on International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36