Book Title: Rup ka Garv Diwakar Chitrakatha 038
Author(s): Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 30
________________ रूपंका गर्व एक बार देव-सभा में बैठे देवराम ने मुनि सनत्कुमार को सूर्य के सामने देवताओं ने चकित होकर पूछा- पृथ्वीलोक पर आतापना लेते हुए देखा। उनके शरीर पर फोड़े-फुसिया, गाँठे आदि देवराज ! आप / महामुनि सनत्कुमार निकली हुई हैं। जीव-जन्तुओं के काटे का घावों से खून रिस रहा है। सिर पर बैठे पक्षी चोंच मार-मारकर कानों का माँस नोंच रहे हैं, फिर || किसकी प्रशंसा विपुल-वैभव को त्यागकर घोर भी मुनि अडोल खड़े हैं। देवराज ने सिंहासन से उतरकर वन्दना की कर रहे हैं?/ तप कर रहे है। उनका शरीर अनेक महारोगों से आक्रान्त धन्य हो है, फिर भी उसकी परवाह महातपस्वी ! इतना किये बिना तपोलीन हैं। अद्भुत तप ! इतनी घोर तितिक्षा! (फिट रोग की पीड़ा क्यों सह रहे हैं? | यही तो श्रमणों का घोर तितिक्षा व्रत है। शारीरिक रोग पूर्व कर्मों का भोग है। इसे भोगे बिना मुक्ति कैसे होगी? इसी कारण घोर व्याधियों को समभावपूर्वक सहते हुए मुनि अपने तप में लीन हैं। (ऐसे अद्भुत तपस्वी सदा वन्दनीय हैं। देवता बोले आप अनुमति । दें तो हम इनकी चिकित्सा करें। आप क्या चिकित्सा करेंगे? तप प्रभाव से उनके थूक, पसीने और मल-मूत्र आदि में भी ऐसी दिव्य शक्ति विद्यमान है कि उसका लेप करने से वे कुष्ठ आदि सब व्याधियों से मुक्त हो सकते हैं। NAAAAAA OUण्ण्ण्ण्ण्ण VOG गणणणणपणे देवेन्द्र की बातें सुनकर वे दोनों देव मुनि सनत्कुमार की परीक्षा लेने वैद्य का भेष बनाकर पृथ्वीलोक की ओर चल दिये। Jain Education International For Private 28rsonal Use Only www.jainelibrary.org

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