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जीव दया पालने और सत्य व्यवहार करने से क्या दैनिक जीवन के कार्य सुचारू रूप से चल सकते हैं। जीवन को व्यवहारिक होना चाहिए। जिसके पास शक्ति है वह कायरता का आचरण नहीं करता। यह तो पागलों की रीति नीति है कि वे जीव दया और ब्रह्मचर्य की बातें कह कर लोगों को बहकाते हैं। जीवन के यथार्थवादी दष्टिकोण से पृथक करते है. मेरी दष्टि में जीवन का सत्य स्वेच्छया भोग भोगना और उपलब्ध पदार्थों का यथोचित उपयोग करना है। जो वीतरागी देव हैं, वह न तो किसी से प्रसन्न होगा और न किसी से असंतुष्ट । जो उसकी सेवा करेगा वह कुछ प्राप्त नहीं कर सकता है और जो इस देव की निन्दा करेगा, उसे कोई दण्ड नहीं मिल सकता है। इस स्थिति में वीतरागी देव की उपासना हमारे किस काम की है।
नाथ, आपने अभी जीवन के यथार्थ लक्ष्य को नहीं समझा। जीवन का लक्ष्य शाश्वत् सुख शान्ति के लिए प्रयत्न करना है। हमारा
इतना ही लक्ष्य नहीं है कि MIS
सांसरिक भोग भोगते हुए जीवन को समाप्त कर दें। मानव जीवनका लक्ष्य आत्मोत्थान या आत्मोद्धार है।इस लक्ष्य के अनुसार ही हमें सांसरिक कार्यों में| प्रवृत्ति करनी चाहिए।
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हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह संचय रूप पापों के सेवन से कोई। पाप कभी सुख का कारण नहीं बन सकते। इनके सेवन से सुखी नहीं हो सकता। यदि इन पापों का सेवन ही धन संचय का कारण अन्तरात्मा कलुषित हो जाती है और व्यक्ति अपने निजस्वरूप होता तो चोर लुटेरे भी धनिक बन गये होते। धन संचय का कारण को भूले रहता है। यह मोहादेय का परिणाम है कि आपके मुख से शुभोदय है। जिस व्यक्ति के शुभकर्म का उदय है, उसे अनुकूल सामग्री 'इस प्रकार की बातें निकल रही है। सात्विक प्रवृत्ति को प्रत्येक की प्राप्ति होती है और अशुभोदय आने पर अनुकूल सामग्री नष्ट हो समझदार व्यक्ति सुखप्रद मानता है। जो पाप का सेवन करता है, जाती है और प्रतिकूल कारण कलाप एकत्र हो जाते है।
उसी को राजदण्ड समाजदण्ड और जातिदण्ड प्राप्त होते हैं।
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प्रेय की भभूत