Book Title: Prey Ki Bhabhut
Author(s): Rekha Jain
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 14
________________ वत्से ! क्षमा करने की कोई बात नहीं। पता नहीं मेरे मन में क्रोध क्यों आ गया। मैं स्वयं पश्चाताप कर रहा हूँ। यह भी मेरे किसी कर्म का उदय था, जो इस रूप में परिणत हुआ। वचन अन्यथा नहीं हो सकते. दिया गया अभिशाप अब मृषा नहीं हो सकता। उसका एक ही उपाय है कि जन कल्याण किया जाय। जनकल्याण के कार्यों के करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है और आत्मा पवित्र हो जाती है। स्वामिन! क्या कारण है कि आप का मन आज कन्दुक कीड़ा में नहीं लग रहा है। कौनसी | आपको चिन्ता है जिससे रह-रह कर आप चौंक जाते हैं। कृपया मुझसे अपनी कोई बात छिपाईये नहीं स्पष्ट कह दीजिये। शायद मैं आपकी सहायता कर सकूं। महेश्वर दत्त उद्यान में क्रीड़ा कर रहा था। आज उसके अन्तर में कोई चिन्ता समाहित है। वह स्वयं ही नहीं समझ पाता है कि क्यों रह रहकर मन उदास हो रहा है। कार्य करने में चित्त क्यों नहीं लगता है। वह नर्मदा के साथ कंदुक क्रीड़ा कर रहा था, पर बीच-बीच में ध्यान अन्यत्र चला जाता था। जिससे उसका शान्त मन अशान्त हो जाता। नर्मदा ने विनीत भाव से पूछा- जो अपने पितामह-पिता द्वारा अर्जित सम्पति का उपयोग करता रहता है, वह तो निष्फल जीवन है ही, पर जो निरन्तर विषयाक्त हो घर पर ही रहता है, वह भी कूप मण्डूक बन जाता है। व्यापार में निरन्तर गतिशील रहना ही जीवन की यथार्थता है। जिस झरने का जल सतत् प्रवाहित होता रहता है, उसी का जल स्वच्छ और पे माना जाता है। जीवन की भी यही स्थिति है, गतिशीलता के कारण जीवन क्रियाशील है औरनिष्क्रियता के कारण जड़ । C 12 साधु चला गया और नर्मदा अपने अशुभ कर्मों की निर्जरा के लिए दान, पूजा, शील और तपाराधनों में प्रवृत्त हुई। रोगियों, दुखियों और असहायों की सेवा में लग गयी। उसने चैत्यालयों में पूँजन की व्यवस्था कराई। मुनियों और तपस्वियों को आहार दान दिया। राहगीरों के लिए प्याऊ, शालाओं का प्रबन्ध किया। तन, मन और धन से उसने लोक सेवा का व्रत ग्रहण किया। वह वीतरागी देवों के उपासना में अपना अधिकाधिक समय व्यतीत करने लगी। भक्ति ही सुख और शान्ति देने वाली है। साधारण मानव मी प्रभुभक्ति के प्रभाव से अपना कल्याण कर सकता है। वीतरागी प्रभु की सेवा भक्ति से परम शान्ति की प्राप्ति होती है। LL HAPT प्रेय की भभूत

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