Book Title: Pravachansara Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ संपादक की कलम से डॉ. कमलचन्द सोगाणी द्रव्य और पर्याय की अवधारणा लोक के पदार्थ द्रव्यस्वरूप होते हैं और द्रव्य अस्तित्वमय है। यदि द्रव्य अस्तित्वमय नहीं है तो द्रव्य अस्तित्वरहित होगा या फिर वह द्रव्य अन्य कुछ होगा। दोनों स्थितियों में वह द्रव्य कैसे होगा? इसलिए द्रव्य स्वयं सत्ता है (सयं सत्ता)। यहाँ यह समझना चाहिये कि सत्ता और द्रव्य में प्रदेश-भिन्नता (पृथकता) नहीं हैं किन्तु प्रदेश-भेद के बिना भी सत्ता और द्रव्य में तादात्म्य का अभाव है उनमें अन्यत्व' नामक भेद है अर्थात् उनमें स्वरूप भेद है। जो द्रव्य है वह सत्ता नहीं है और जो सत्ता है वह द्रव्य नहीं है। कहने का अभिप्राय यह हैः सत्ता द्रव्य के आश्रित रहती है और वह एक गुण है किन्तु द्रव्य किसी के आश्रित नहीं रहता है और अनन्त गुण-पर्याय-सहित होता है। इस तरह दोनों एक-दूसरे से अन्य हैं; एकरूप नहीं है। इस तरह सत्ता द्रव्य का एक लक्षण है। सत् स्वभाववाला द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-युक्त होता है। उत्पत्ति (उत्पाद) नाश (व्यय) से रहित नहीं है और नाश (व्यय) उत्पत्ति (उत्पाद) से रहित नहीं है। उत्पाद और नाश (व्यय) भी ध्रौव्य पदार्थ के बिना नहीं होता है। चूँकि उत्पाद, स्थिति (ध्रौव्य) और नाश (व्यय) पर्यायों में रहते हैं; पर्यायें द्रव्य में होती हैं, इसलिए आवश्यकरूप से वह सब द्रव्य में ही होता है। इस तरह द्रव्य एक समय में तीन का समूह होता है (तत्तिदयं)। कहने का अभिप्राय यह है कि जब किसी द्रव्य की कोई पर्याय उत्पन्न होती है तब उसी द्रव्य की कोई पर्याय नष्ट होती है; तो भी वह द्रव्य न ही उत्पन्न हुआ, न ही नष्ट हुआ, वह ध्रुव है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 190