Book Title: Pravachansara Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 10
________________ साथ अविरोधरूप से कहा जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द द्रव्य-पर्याय की धारणा को जीव पर घटित करते हुए कहते हैं कि जब जीव विभिन्न जन्मों में मनुष्यरूप, देवरूप अथवा अन्यरूप होता है तो भी वह द्रव्यदृष्टि से जीव ही रहता है यद्यपि पर्यायदृष्टि से पर्याय से तन्मयता बनाये हुए रहता है और एक पर्याय की स्थिति में जब तक रहता है तब तक दूसरी पर्याय से भिन्न बना रहता है। अतः कहा गया है कि द्रव्यार्थिकनय से एक द्रव्य की विभिन्न पर्यायों में कोई भी द्रव्य भिन्न नहीं होता है और पर्यायार्थिकनय से वही द्रव्य पर्यायों की भिन्नता के कारण भिन्न होता है क्योंकि वह द्रव्य उसी पर्याय से उस अवसर पर एकरूप होने के कारण भिन्न कहा जाता है। इसलिए दार्शनिक शब्दावली में इस प्रकार व्यक्त किया गया है (अतः) द्रव्य किसी प्रकार से (द्रव्यार्थिकनय से) 'अस्ति' ही है और द्रव्य किसी प्रकार से पर्यायार्थिकनय से 'नास्ति' ही है अर्थात् वह द्रव्य पर्याय से एकरूप होने के कारण पर्यायरूप हो गया। (दोनों को एक साथ कहना चाहें तो) (वही द्रव्य) 'अवक्तव्य' ही होता है और (अलग-अलग कहना चाहें तो) द्रव्य अस्तिनास्ति तथा अन्य (तीन प्रकार से) कहा गया (है) अर्थात अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य। ____पर्याय की धारणा के प्रसंग में कहा गया है कि उक्त मनुष्यादि पर्याय . नित्य नहीं है, क्योंकि इन पर्यायों में उत्पन्न राग-द्वेषात्मक क्रियाएँ सदैव रहती हैं जो संसारी पर्यायरूप फल उत्पन्न करती है। इन पर्यायों में जीव द्रव्य नित्य ही उपस्थित रहता है। वह उत्पन्न और नष्ट नहीं होता है। पर्यायें ही उत्पन्न और नष्ट होती हैं। प्रवचनसार (खण्ड-2) (3) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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