Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra Author(s): Bhuvanbhanusuri Publisher: Divya Darshan TrustPage 24
________________ इच्छकारसुहराई सुत्र इच्छकार १ सुहराई ? (सुहदेवसि) २ सुख तप? ३ शरीर निराबाध ? ४ सुखसंजम जात्रा निर्वहते होजी? स्वामि ! ५ शाता है जी ? भातपाणी का लाभ देना जी । विवेचन - यहां गुरू से १ रात्रि (दिन) - २ तप - ३ शरीर - ४ संयम - ५ शाता, इनके विषय में ५ प्रश्न पूछे जाते हैं, इच्छकार यानी आप की इच्छा हो तो मैं पूछू कि (१) आपकी रात्रि सुखरुप व्यतीत हुई ? (आपका दिवस सुखरुप व्यतीत हुआ ?) (२) आपका तप सुखरुप चलता है ? (३) आपके पुण्यदेह को कोई बाधा नहीं है न ? (४) आपकी संयमयात्रा का निर्वाह सुखरुप चलता है ? (५) आप को सुखशान्ति है ? बाद में विज्ञप्ति की जाती है कि आहार-पानी (संयमोपकारक भोजन-पात्र-दवाई आदि) का (सुपात्रदान का) लाभ देने की कृपा करें | यहां ध्यान रहे कि सुहराई इत्यादि पांचों का उच्चारण प्रश्न के रूप में होवे । मध्याह्न के पहले सुहराई, व बाद में सुहदेवसी बोलें । अब्भडिओमि इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अर्थ - हे भगवन्, आपकी इच्छा से मुझे आदेश दें । अब्भुट्टिओमि अमिंतर राइयं मैं रात्रि के भीतर (किये हुए अपराधों) को क्षमा याचने के लिये खामेउं ? इच्छं, उपस्थित हुआ हूं । (यहां गुरू 'खामेह' कहे उस पर) मैं आपके खामेमि राइयं (देवसिय), आदेश का स्वीकार करता हूं, रात्रिक (देवसिक) अपराधों को खमाता जं किंचि, अप्पत्तियं, परप्पत्तियं, हूं (यह इस प्रकार :-) जो कुछ (आप को) अप्रीतिकर, अत्यन्त भत्ते-पाणे, विणए-वेचावच्चे, अप्रीतिकर, (या स्वात्मनिमित्त, परनिमित्त) आहार में, पानी में, आलावे-संलावे, विनय में, वैयावच्च (सेवा) में, एक बार बात में, अनेक वार बात उच्चासणे-समासणे, में, (आप से) ऊंचे आसन में, समान आसन में, अंतर-भासाए, उवरि-भासाए (गुरू से की जाती बात में) बीच में बोलने में, अधिक बोलने में, जं किंचि मज्झ विणय-परिहीणं, जो कुछ मेरा विनयरहित सुहमं वा, बायरं वा सूक्ष्म या स्थुल (अपराध) हो, तुडभे जाणह अहं न जाणामि, आप जानते हैं, मैं नहीं जानता, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । (उसको मैं निंद्य-त्याज्य मानता हूं।) (अनुस् न पृष्ठ १६-करेमि भंते सूत्र का चालू) सावद्ययोग यानी मन-वचन-काया की पापवाली प्रवृत्ति के पच्दखाण (प्रतिज्ञाबद्ध त्याग) से हो सकता है । यहां यह पच्चक्खाण किस प्रकार है ? तो कि जहां तक 'नियम' दो घडी का अभिग्रह चले वहाँ तक मन-वचन-काया से सावध योग स्वयं न करना, न कराना । यह सावधयोग-पच्चक्खाण शुद्ध हो इसलिए अब तक किये सावद्ययोग का प्रतिक्रमण करना अर्थात् मिच्छामि दुक्कडं करने पूर्वक सावद्ययोग से मन को वापस लौटाना, यानी इस का पश्चात्ताप करना । निन्दा यानी आत्मसाक्षिक घृणा-दुगंछा, गर्दा यानी गुरुसाक्षिक घृणा-दुगन्छा । 'अप्पाणं वोसिरामि' पहले सावद्ययोग जिस मलिन काषायिक भाव से किये वैसे भाववाली आत्मा का ममत्व छोड देता हूं, वैसी मेरी दुष्ट आत्मा की घृणा-जुगुप्सा करता हूं कि अरे कैसी मेरी दुष्ट आत्मा कि इसने ऐसे मलिन भाव व सावद्य योग किये । इस सूत्र को सामायिक दंडक कहा जाता है । दंडक अर्थात् फकरा (Paragraph) परेग्राफ, आलापक (आलावा)। 1१७ unelibrary.orgPage Navigation
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