Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 110
________________ बभी सुदरी रूप्पणी, रेवइ कुती सिवा जयती अ । देवइ दोवई धारणी, कलावई पुप्फचूला य ||१०|| पउमावई अ गोरी, गंधारी लक्खमणा सुसीमा य । जंबूवई सच्चभामा, रूप्पिणी कण्हट्ठ महिसीओ ||११|| जक्खा य जक्खदिन्ना, भूआ तह चेव भूअदिना य । सेणा वेणा रेणा, भइणीओ थूलभद्दस्स ||१२|| २१-२२. ब्राह्मी-सुंदरी : श्री ऋषभदेव भगवान की विदुषी पुत्रियाँ । एक लीपिज्ञान में व दूसरी गणितज्ञान में प्रवीण थी | सुंदरी ने चारित्रप्राप्ति के लिए ६० हजार वर्ष तक आयंबिल का तप किया था । दोनों बहनोंने दीक्षा लेकर जीवन उज्ज्वल बनाया था । बाहुबलि को उपदेश देने दोनों साध्वी बहनें साथमें गयी । अंतमें मोक्षमें पधारी । २३.रूक्मिणी : कृष्ण की पटरानी से भिन्न | विशुद्ध शीलवती सन्नारी थी। २४.रेवती : भगवान महावीरस्वामी की परम श्राविका | गोशालक की तेजोलेश्यासे हुई अशाताके समयमें भक्तिभावसे कुष्माण्डपाक (कोहलापाक) वहोराने से प्रमुवीर को शाता देकर तीर्थंकर नामकर्म बांधा । आगामी चौबीसी में समाधि नामक सत्रहवें तीर्थंकर बनेंगे। २५.कुती : पाँच पांडवों की माता | अनेक प्रकारके इतिहास प्रसिद्ध कष्टों के बीच भी धर्मश्रद्धा की ज्योत जलती रखी थी । अंत में पुत्रों व पुत्रवधुओं के साथ चारित्र लेकर मोक्ष में गये। २६.शिवादेवी: चेटकराजा की पुत्री व चंडप्रद्योत राजा की परम शीलवती पट्टरानी । देवकृत उपसर्ग में भी अचल रही । उज्जयिनी नगरी में प्रज्वलित अग्नि इस सती के हाथों से पानी छिटकाने से शांत हो गया । अंतमें चारित्र लेकर सिद्धपदकी प्राप्ति की। २७.जयंती : शतानिक राजा की बहन व रानी मृगावती की नणंद । तत्त्वज्ञ व विदुषी इस श्राविकाने प्रभुवीर को तात्त्विक अनेक प्रश्न पूछे थे व प्रभुवीरने उनके प्रत्युत्तर भी दिये थे । अन्ततः दीक्षा लेकर सिद्धिगति को प्राप्त किया। २८. देवकी: वसुदेव की पुत्री व श्रीकृष्ण की माता | "देवकी का पुत्र तुझे मारेगा" यह बात मुनि कथन से ज्ञात होने पर कंसने देवकी के ६ पुत्र मारने के लिए ले लिये व सातवाँ पुत्र कृष्ण । अपने छ पुत्र मुनिओं को अजब के संयोग से एक ही दिन घर वहोरने के लिये आना हुआ तब देवकी अत्यधिक प्रसन्न हुई । देवकी को पुत्रपालन की तीव्र इच्छा हुई, तब कृष्ण ने हरिणिगमेषी देवको प्रसन्न कर गजसुकुमाल पुत्रकी प्राप्ति करवायी । उन्होंने कोमलवयमें दीक्षा ली तब "मुझे इस भवचक्र की अंतिम माँ बनाना" ऐसे आशीर्वाद दिये । देवकी ने सम्यक्त्व सहित बारहव्रत का पालन कर आत्मकल्याण किया । २९.द्रौपदी : पूर्वकृत निदानके प्रभावसे पाँच पांडवों की पत्नी बनी । नारदने निश्चित की हुई बारी के अनुसार जिस दिन जिस पति के साथ रहना हो उस दिन उनसे अन्य के साथ भ्रातृवत् व्यवहार करने का अतिदुष्कर कार्य किया इसलिए महासती कहलायी । अनेक कष्टों के बीच भी शील अखंड रखा व चारित्र लेकर देवलोक में गयी। ३०.धारिणी: चंदनबाला की माता । एक बार शतानिक राजाने नगर पर चढाई की तब धारिणी रानी अपनी पुत्री वसुमति के साथ भाग गयी परंतु सेनापति के हाथ से पकड़ी गयी । वन में उसने अनुचित मांग की । उस समय शीलरक्षा हेतु जीभ खींचकर प्राण त्याग कर दिये । ३१.कलावती : शंखराजा की शीलवती स्त्री । भाई द्वारा प्रेषित कंकणों की जोड़ी पहनकर प्रशंसा के वाक्यसे मति-विभ्रम द्वारा पति को इनके शील पर संदेह हुआ व कंकण सहित हाथ काटने की आज्ञा दी । वधिकोंने जंगलमें जाकर ऐसा किया किंतु शील के दिव्य प्रभावसे इनके हाथ जैसे थे वैसे के वैसे आ गये । जंगलमें पुत्र को जन्म दिया व तापसों के आश्रम का आश्रय लिया । कंकण उपर के नाम पढ़कर जब संदेह दूर हुआ तब राजा बहुत पछताया । बहुत सालों बाद पुनः दोनों का मिलन हुआ परंतु तब जीवनरंग पलट चुका था । गुरूदेव के पास दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया व मोक्षमें गयी । ३२.पुष्पचूला : पुष्पचूल-पुष्पचूला दोनों जुडवा भाई-बहन का परस्पर अतिशय स्नेह देखकर दोनों को पिताने विवाहित किया । अघटित घटना को देखकर माता को आघात लगा । दीक्षा लेकर स्वर्गमें गयी । वहाँ से स्वर्ग-नरक के स्वप्न दिखाकर पुष्पचूला को प्रतिबोधित किया । अर्णिकापुत्र आचार्य के पास दीक्षा दिलाई । स्थिरवासमें स्थित अर्णिकापुत्र आचार्य की बहुमानपूर्वक सेवा-भक्ति करते हुए एक दिन केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर भी जब तक आचार्य को पता न चला तब तक वैयावच्च करती रही । अंतमें मोक्षमें पधारे। ३३-४० पद्मावती-गौरी-गाधारी-लक्ष्मणा-सुसीमा-जबूवती-सत्यभामा वरूक्मिणी : ये आठ श्री कृष्ण की अलगअलग देश में जन्मी पट्टरानियाँ थीं । इन आठों की शीलपरीक्षा पृथक् पृथक समयमें हुई किंतु ये प्रत्येक उसमें पार उतरी । अंतमें आठों पट्टरानियों ने दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया । ४१-४७ यक्षा-यक्षदत्ता-भूता-भूतदत्ता-सेणा-वेणा-रेणा : ये सात स्थूलभद्रजी की बहनें । स्मरणशक्ति अत्यंत तीव्र थी। क्रमशः एक दो-तीन-चार यावत् सात बार सुनने से याद हो जाता था । सातोंने दीक्षा अङ्गीकार की थी । यक्षा साध्वीजीने एकबार भाई मुनिराज श्रीयकमुनिको प्रेरणा करके शारीरिक प्रतिकूलता होने पर भी पर्वतिथी के दिन उपवास करवाया । रात्रि में श्रीयक कालधर्म पाने से लगे आघात को दूर करने के लिए संघ की सहाय से शासनदेवी श्री सीमंधरस्वामि के पास ले गई, वहां प्रभुजीने निर्दोषता ज्ञापित कर शोक दूर करने के लिये चार चूलिकासूत्र दिये । एकबार स्थूलभद्रजी को वंदन करने गए तब अहंकार से उन्होंने सिंह का रूप धारण किया । गुर्वाज्ञा से वापस वंदन करने गये तब मूल स्वरूपमें आ गये । निर्मल संयमजीवन का पालनकर आत्मकल्याण किया । इच्चाई महासईओ, जयंति अकलंकसीलकलिआओ । अज्जवि वज्जइ जासिं, जसपड़हो तिहुअणे सयले ।।१३।।। इत्यादिक निष्कलंक शील को धारण करनेवाली अनेक महासतियाँ जय को प्राप्त होती हैं जिनके यश का पटह आज भी समग्र त्रिभुवनमें बज रहा हैं। dalni Eduatic buternational For Priva903 alle only www.jainelibrary.org

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