________________ व्यापार में माल से ज्यादा किंमत भाव की होती है, अतिथि सत्कार में द्रव्यों से ज्यादा जरुरत आदरभाव की होती है, सेवा में अनुकूलता से ज्यादा किंमत सद्भाव की होती है, उसी तरह आराधना में क्रिया के साथ भाव की महत्ता विशिष्ट रहती है। अज्ञान और गतानुगतिकता के कारण वर्षों की आराधना के बावजूद भी कई आराधक भाव की अनुपस्थिति में मंझिल से दूर ही रहते हैं। शवकर मुंहमें, फिर भी मुंह मीठा नहीं ? पानी पेटमें, फिर भी प्यास बुझती नहीं ? ऐसी शिकायत कहीं सुनी है ? तो आत्मकल्याणकर क्रिया जीवन में, फिर भी अहोभाव नहीं, यह शिकायत क्यों ? उपरोक्त समस्याओं का समाधान सकलसंघहितचिंतक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहेबने दिया है। प्रतिक्रमण सूत्रों (जिन में सामायिक, चैत्यवन्दन आदि क्रियाओं के सूत्र समाविष्ट ही है) के प्रत्येक पद या गाथा के अर्थों और भावार्थों को अपनी सूझबूझ से चित्रों में परिवर्तित करके हमारी आराधना को आराधक भाव बनाने में योगदान दिया है। अत्यंत उत्कृष्ट और भाववाही उन चित्रों से समृद्ध, पूज्यश्री के कल्पनावैभव और कलावैभव से समृद्ध, क्रियामें भाव और प्रभु प्रति सद्भाव उत्पन्न करती हुई, अनुष्ठान से आराधना और आराधना से आत्मकल्याण की ओर आगे बढाती... अजोड, अनुपम और अद्भुत किताब श्री प्रतिक्रमण-सूत्र-चित्र-आल्बम... आप स्वाध्याय कीजीये और साधना में सिध्धि प्राप्त कीजीये | RAJUL 0022-25149863 022-25110056 Jain Education International For Private &Parome Only www.jainelibrary.org