Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 26
________________ जंकिचि सूत्र जं किंचि नामतित्थं, सग्गे पायालि माणुसे लोए । जाइं जिणबिम्बाई, ताइं सव्वाइं वंदामि ।। सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं... अर्थ : स्वर्ग, पाताल (एवं) मनुष्यलोक में जो कोई तीर्थ है, (व वहां) जितने जिनबिम्ब है उन सब को मैं वंदना करता हूं । जावंति सूत्र जावंति चेइयाइं, उड्ढे अ अहे अ तिरियलोए अ । अर्थ : ऊर्ध्व (लोक) में, अधो (लोक) में व तिर्च्छालोक में जितने चैत्य (जिनमंदिर-जिनमूर्ति) हैं वहां रहे हुए उन सब को यहां रहा हुआ मैं वंदना करता हूं । सव्वाई ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई || सव्वलोए सूत्र समस्त (ऊर्ध्व-अधो-तिर्यक्) लोक में रहे हुए अरिहंत भगवान के चैत्यों के (वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान निमित्त) मैं कायोत्सर्ग करता हूं। (समझ ) चित्र के अनुसार यहाँ उपर अनुत्तर विमान से लेकर नीचे भवनपति तक के सब जिनमंदिर व जिन प्रतिमाओं को, स्वयं अलोक में खड़ा रह, व सामने लोक रख, लोक में देखना है । 'जं किंचि' बोलते ही तीनों लोक के शाश्वत अशाश्वत तीर्थ-जिनमंदिर पर दृष्टि पड़े, व 'सग्गे' बोलते समय उपर वैमानिक व ज्योतिष्क स्वर्ग के, 'पायालि' उच्चारण में नीचे व्यंतर-भवनपति के, व 'माणुसे लोए' बोलने में जंबूद्वीपादि के जिनमंदिर पर दृष्टि पडे । (अगर 'मनुष्य लोक' से मध्यलोक ले तो व्यंतर-ज्योतिष्क के मंदिर में असंख्य मंदिर दिखाई पड़े, बाकी में संख्यात) । 'जाइं जिण०' बोलते समय इन मंदिरों में चतुर्मुख या एकमुख प्रतिमा दिखाई पडे । 'ताइं वंदे० ' बोलने में उन सब के प्रत्येक के चरण में दो हाथ जोड़ अपना सिर नमे । तात्पर्य, असंख्य जिनचरण में असंख्य स्व-शिर झुकते दिखाई पड़े । इस प्रकार वंदना करनी है। 'जावंति चेइयाई' सूत्र का भी चित्र यही है । मात्र अपने को अलोक में नहीं किन्तु 'इह संतो' यहाँ ही बैठे रहे 'उड्ढे अ...' स्वर्ग-पाताल-मध्यलोक के चैत्य अर्थात् मंदिर व जिनबिंब पर दृष्टि डालनी हैं । 'सव्वलोए०' में समस्त लोक के बिम्बों को देव-मनुष्य द्वारा किए जाते वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान दिखाई पड़े व स्वयं को इनकी अनुमोदना हो । ('पूजन' पुष्पादि से, 'सत्कार' अंगरचना आभूषणों से, 'सन्मान' स्तुति-गुणगान से होता है । सामाइय-वय- जुत्तो (सामायिक-पारण) सूत्र सामाइय-वय-जुत्तो जाव मणे होइ नियम संजुत्तो । (अर्थ) सामायिक व्रत से युक्त जीव जहां तक मन छिन्नइ असुहं कम्मं सामाइय जत्तिया वारा ||१|| में नियम से युक्त है (वहां तक) वह अशुभ कर्म का सामाइयंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा । उच्छेद करता रहा है, (यह भी) सामायिक जितनी एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥२॥ बार होती है (उतनी बार) सामायिक करे उसमें ||१|| सामायिक विधि से लिया, विधि से पूर्ण किया, जिस कारण श्रावक साधु जैसा होता है। विधि करने में जो कोई अविधि हुई हो वह सभी इस कारण से बहुत बार सामायिक मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं करनी चाहिए ||२|| (मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो) दश मनके दश वचनके बारह कायाके ऐसे बत्तीस दोषमें से जो कोई दोष लगा हो तो वह सभी मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं । १९

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