Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra Author(s): Bhuvanbhanusuri Publisher: Divya Darshan TrustPage 94
________________ |भरहेसर बाहुबली, अभयकुमारो अ ठंढणकुमारो । सिरिओ अणिआउत्तो, अइमुत्तो नागदत्तो अ ||१|| १. भरत चक्रवर्ती श्री ऋषभदेव भगवान के सबसे बड़े पुत्र व प्रथम चक्रवर्ती । अप्रतिम ऐश्वर्य होने पर भी जागृत साधक थें । ६० हजार ब्राह्मण प्रतिदिन "जितो भवान्, वर्धते भयम्, तस्मात् मा हन ! मा हन् !" सुनाते थें ! ९९ भाइयों की दीक्षा के पश्चात् वैराग्यभावमें रममाण रहते थे। एक बार अरीसा-भवनमें अपने अलंकृत शरीर को देखते एक अंगूली में से अँगूठी निकल गयी । शोभारहित अंगूली को देखकर अन्य अलंकार भी उतारे । देह को शोभारहित जानकर अनित्य भावना से मनको भावित किया व अंतमें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । देवताओं ने दिये हुए साधुवेश का परिधान किया । अंतमें अष्टापद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुए । २. बाहुबली : भरतचक्रवर्ती के छोटे भाई । भगवान ऋषभदेवने उनको तक्षशिला का राज्य दिया । उनका बाहुबल असाधारण था, तथा ९८ भाईयों के अन्याय का प्रतिकार करने के लिए चक्रवर्ती की आज्ञा का स्वीकार नहीं किया व भयंकर युद्ध हुआ । अति में इन्द्र को सूचन से दृष्टियुद्ध, वाग्युद्ध, बाहुयुद्ध और दंडयुद्ध किया, जिसमें भरत चक्रवर्ती हार गये व चक्ररत्न फेंका परन्तु चक्ररत्न स्वगोत्रीयका नाश नहीं करता अतः वापिस गया । अत्यंत क्रोधित होकर बाहुबली ने मुझी उठायी परंतु विवेकबुद्धि जागृत हुई। उठायी हुई मुट्टी से केशलुंचन करके दीक्षा ली। केवलज्ञानी अठानवें छोटे भाइयों को वंदन कैसे करूँ ? अतः मैं मी केवलज्ञान प्राप्त करके ही वहां जाऊँ। इस विचारसे वहीं कायोत्सर्गमें स्थित रहे । एक वर्ष पश्चात् प्रभुने ब्राह्मी-सुंदरी बहिन साध्वीजी को भेजा । "वीरा मोरा गज थकी उतरो रे, गज चढ्ये केवल न होय" यह सुनकर बाहुबली चौंक पडे । वंदन करने की भावना से कदम उठाते ही केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान ऋषभदेव के साथ मोक्ष में गये । : । ३. अभयकुमार रानी नंदा से प्राप्त राजा श्रेणिक के पुत्र बाल्यावस्था में ही पिताके गूढवचन को समझकर पिता के नगर में आकर खाली कुएं में गिरि हुई अंगुठी को अपने बुद्धि चमत्कार से उपर ले आये। राजा श्रेणिक के मुख्यमंत्री बने । औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी व पारिणामिकी बुद्धि के स्वामी थे। उन्होंने अनेक समस्याओं को सहजता से हल किया। अंतमें अंतःपुर जलाने के बहाने पिता के वचन से मुक्त होकर प्रभु महावीर के पास दीक्षा ली व उत्कृष्ट तप द्वारा तपकर अनुत्तर विमान में देव बने। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर चारित्रग्रहण करके मोक्षमें पधारेंगे । ४. ढणकुमार ये श्रीकृष्ण वासुदेव की ठंढणा नामक राणी के पुत्र थे। इन्होंने बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ प्रभुके पास दीक्षा ली परन्तु पूर्वकृत् कर्म के उदय से शुद्ध भिक्षा नहीं मिलती थी । इस लिए अभिग्रह किया कि "स्वलब्धि से भिक्षा मिले तबही लेनी ।" एक समय द्वारिकामें भिक्षा के लिए फिर रहे थे, उस समय प्रभु नेमिनाथने अपने अठारह सहस्र मुनिवरों में इनको सर्वोत्तम बताया था इसलिए श्री कृष्ण ने हाथी से नीचे उतरकर विशेष भाव से वंदन किया। यह देखकर एक श्रेष्ठि ने उत्तम भिक्षा बहोरायी । परंतु यह आहार "स्वलब्धि'' से नहीं मिला यह प्रभु के मुखसे जानकर उसको कुम्हार की शाला में परठवने हेतु गये । उस समय उत्तम भावना करने से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। विश्वकल्याण करके मोक्षमें पधारे । ५. श्रीयक शकड़ाल मन्त्री के लघु पुत्र तथा स्थूलभद्र स्वामी व यक्षादि सात बहनों के भाई थे। पिता के मृत्यु पश्चात् नंदराजा के मंत्रीपद का स्वीकार किया। धर्म के अनुराग से सौ जितने जिनमंदिर व तीन सौ जितनी धर्मशालायें बनवायी थी । धर्म के अन्य भी अनेक कार्य किये थे। अंतमें दीक्षा ग्रहण की और यक्षा साध्वीजी के आग्रह से पर्युषण पर्व में उपवास का पच्चक्खाण किया । सुकोमलता के कारण तथा कभी भूख सहन नहीं की थी इस लिए उसी रात्रि में शुभध्यान पूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए व स्वर्गलोकमें गये । 1 ६. अणिकापुत्र आचार्य : देवदत्त वणिक व अर्णिका के पुत्र । नाम था संधीरण परंतु जनता में वे अर्णिकापुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए । जयसिंह आचार्य के पास दीक्षा लेकर क्रमानुसार शास्त्रज्ञ आचार्य बनें । राणी पुष्पचूला को आये हुए स्वर्ग-नरक के स्वप्न का यथावत् वर्णन करके प्रतिबोधित की व दीक्षा दी । अकाल में अन्यमुनि देशांतर गए परंतु वृद्धत्व के कारण वहाँ रहे हुए अर्णिकापुत्र आचार्य की साध्वी पुष्पचूला ने वैयावच्च की । कालांतर से केवलज्ञानी साध्वीजी की वैयावच्च ली उसका ख्याल आते ही पुष्पचूला साध्वीजी से क्षमा माँगी व 'अपना मोक्ष गंगा नदी उतरते होगा' यह जानकर गंगानदी पार उतरते पूर्वभव की वैरी व्यंतरी ने शूली भौंकी । समभाव से अंतकृत् केवली बनकर मोक्षमें सिधायें । ७. अतिमुक्त मुनि पेढालपुर नगर में विजयराजा व श्रीमती रानी के पुत्र अतिमुक्तने माता पिता की अनुमति से आठ साल की उम्र में दीक्षा ली । 'जे जाणु ते नवि जाणु नवि जाणु ते जाणु'' मृत्यु निश्चित है यह जानता हूँ परंतु कब होगा वह नहीं जानता इस सुप्रसिद्ध वाक्य द्वारा श्रेष्ठि की पुत्रवधू को प्रतिबोधित किया । बाल्यावस्थावश वर्षाऋतुमें जमे हुए पानी में पात्रा की नाव तिराने लगे तब स्थविरोंने साधुधर्म समझाया। प्रभु के पास आकर तीव्र पश्चात्तापपूर्वक इरियावहिया के "दगमट्टी" शब्द बोलते बोलते केवलज्ञान प्राप्त हुआ । मतांतर से ११ अंग पढकर, गुणरत्नसंवत्सर तप तपकर अंतकृत् केवली बने । ८. नागदत्त वाराणसी नगरी के यज्ञदत्त शेठ व धनश्री के पुत्र विवाह नागवसु कन्या के साथ हुआ। नगर का कोतवाल नागवसु को चाहता था। अतः राजा के रस्ते में गिरे हुए कुंडल को कायोत्सर्ग ध्यान में खडे निःस्पृही नागदत्त के पास रखकर राजा समक्ष उस पर चोरी का कलंक चडाया । राजाने नागदत्त को शूली पर चढाने की आज्ञा दी । नागदत्त के सत्य के प्रभावसे शासनदेवता प्रगट हुए। "प्राण जाने पर भी दूसरे की वस्तु का स्पर्श नही करता यह बात प्रमाणित करके। बतायी, सत्य बात की जानकारी दी व यशगान किये। अंत में नागदत्तने दीक्षा अङ्गीकृत की और सर्व कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया तथा मोक्षलक्ष्मी के स्वामी बनें । Jain Edu ८७ www.lainelibraryPage Navigation
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