Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

Previous | Next

Page 98
________________ हल्ल विहल्ल सुदंसण, साल महासाल सालिभद्दो अ । भद्दो दसणभद्दो, पसण्णचंदो अ जसभद्दो ||३|| १९-२० . हल्ल - विहल्ल : दोनों श्रेणिक की पत्नी चेल्लणा के पुत्र थे । श्रेणिकने सेचनक हाथी इनको देने से कोणिक ने 'युद्ध' किया । मातामह (नानाजी) चेडाराजा की मदद से युद्ध करते थे । रात्रियुद्ध के समय सेचनक हाथी खाई में गिरकर मर जाने से वैराग्य पाकर दीक्षा ली व सर्वार्थसिद्ध विमानमें देव बने । २१. सुदर्शन सेठ : अर्हद्दास व अर्हद्दासी माता-पिता के संतान, बारह व्रतधारी श्रावक थे । राजरानी अभयाने पौषधमें काउसग्ग स्थित सुदर्शन को दासी द्वारा उठाकर मंगवाया । विचलित करने के लिए अनेक उपाय किये, परंतु निष्फलता मिली तब रानीने शीलभंग का इन पर मिथ्या आरोप लगाया। राजा द्वारा सत्य हकीकत क्या है पूछने पर भी अभया की अनुकंपा से सुदर्शन श्रावकने जवाब न दिया । राजाने फांसी की सजा दी । स्वयं की आराधना व धर्मपत्नी मनोरमा के काउसग्ग आराधना के प्रभाव से शूली का सिंहासन बना। एक बार प्रभुवीर के पास जाते थे तब नमस्कार महामंत्र के प्रभाव से प्रतिदिन सात की हत्या करनेवाले अर्जुन व माली के देहमें से यक्ष को दूर कर के दीक्षा दीलाई व अंतमें महाव्रत की आराधना कर मोक्ष में पधारें । २२-२३. शाल - महाशाल : इस नामके दो भाई थे । परस्पर अत्यंत प्रीति थी । एक बार गौतमस्वामिजी की देशना से प्रतिबोध पाकर भानजे गांगलि को राज्य सोंपकर दीक्षा ग्रहण की। एकबार प्रभु गौतमस्वामी के साथ गांगलि को प्रतिबोधित करने हेतु पृष्ठचंपामें आये । माता-पिता के साथ गांगलिने दीक्षा ली । रास्ते में उत्तम भावना से मन को भावित किया, सब को केवलज्ञान प्राप्त हुआ व अंतमें मोक्ष गये । २४. शालीभद्र : पूर्वभवमें संगम नामक भरवाडपुत्र मुनिको खीरदान करने के प्रभाव से राजगृही में गोभद्रशेठ व भद्रा शेठानी के यहाँ पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए। ये अतुलसंपत्ति व उच्चकुलीन ३२ सुंदरियों के स्वामी थे । देवलोकमें से नित्य गोभद्रदेव द्वारा भेजी हुई दिव्यवस्त्र अलंकारादि से युक्त ९९ पेटी के भोक्ता थे। एक बार राजा श्रेणिक उनकी स्वर्गीय समृद्धि देखने आये तब "मेरे उपर भी स्वामी है" यह जानकर वैराग्य हुआ । दीक्षा की भावना से प्रतिि १-१ पत्नी का त्याग करने लगे तब बहनोई धन्य शेठ की प्रेरणा से एक साथ सबका त्याग कर चारित्र अंगीकार किया । उग्र तपश्चर्या-संयमादि का पालन कर वैभारगिरि पर्वत पर अनशन कर के सर्वार्थसिद्ध विमानमें देव बने । २५. भद्रबाहु स्वामी : चौदह पूर्वके अंतिम ज्ञाता थे । आवश्यकादि दस सूत्रों के उपर इन्होंने ही निर्युक्ति रची है । महाप्राण ध्यान के साधक इस महापुरूषने वराहमिहिर के अधुरे ज्योतिषज्ञान का प्रतिकार किया । आकाश में से मांडले के अंतमें मछली गिरनी तथा राजपुत्र का सात दिन में बिल्ली के अर्गला से मृत्यु होगी आदि सत्य भविष्य बताकर जिनशासन की प्रभावना की । वराहमिहिर कृत उपसर्ग को शांत करने के लिए उवसग्गहरं स्तोत्र की रचना की । कल्पसूत्र - मूलसूत्र की रचना इन्हों ने की थी । २६. दशार्णभद्र राजा : दशार्णपुर के राजा थे । नित्य त्रिकालपूजा का नियम था । एकबार गर्वसहित अपूर्व ऋद्धि के साथ वीरप्रभुको वंदनार्थ गये तब इन्द्रने अपूर्व समृद्धि प्रदर्शन करके इनके गर्व का खंडन किया । अतः बैरागी होकर चारित्र लिया । अंतमें सम्यगाराधना करके मोक्ष में पधारे । २७. प्रसन्नचंद्र राजा : सोमचंद्र राजा व धारिणी राणी के संतान । बालकुमार राजपुत्र को राज्यासन देकर चारित्र लिया । एक समय राजगृही के उद्यानमें कायोत्सर्ग में थे तब सैनिकों के मुखसे सुना कि "चंपानगरी का दधिवाहन राजा स्वयं के बालपुत्र को मारकर राज्य ले लेगा ।" अतः पुत्रमोह से मानसिक युद्ध करते-करते सातवीं नरक के योग्य कर्म एकत्रित किये। सभी शस्त्र खतम हो गये जानकर मस्तक पर का लोहे का टोप निकालने के लिए हाथ उपर ले गये, तब मुंडित मस्तक से साधुपन का ख्याल आया, पश्चात्ताप करते-करते केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । २८. . यशोभद्रसूरि : शय्यंभवसूरि के शिष्य और भद्रबाहुस्वामी के गुरूदेव । चौदहपूर्व के अभ्यासी उन्होंने अनेक योग्य साधुओं को पूर्वों की वाचना दी। अंतमें शत्रुंजयगिरि की यात्रा करके कालधर्म पाये व स्वर्ग में पधारें । ९५ ainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118