Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra Author(s): Bhuvanbhanusuri Publisher: Divya Darshan TrustPage 46
________________ जगचिंतामणि सूत्र (भाग-३) अवर विदेहि० 2 (अर्थ) • महाविदेह में, विशेष क्या चारों दिशाओं में व चारों विदिशाओं में जो कोई हुए हैं, होने वाले हैं, व विद्यमान हैं, उन सब जिनेश्वर देवों को मैं वंदन करता हूँ । (अथवा 'अवर'=उक्त ५ तीर्थ के अलावा 'विदेहि' =अशरी-मुक्त बने तीर्थंकर स्थापना रूप से चारों...) • अवरविदेहि तित्थयरा, चिहुं दिसि विदिसि जिं के वि । तीयाऽणागय-संपइय, वंदु जिण सव्वे वि ।। • सत्ताणवई सहस्सा, लक्खा छप्पन अट्ठ कोडिओ । बत्तीससय बासियाई, तिय लोए चेइए वंदे ॥ • पनरस कोडिसयाइं, • तीन लोक में (स्थित) ८ क्रोड ५६ लाख ९७ हजार, ३२८२ (शाश्वत) जिन मंदिरों को वंदन करता हूँ । ८,५७,००,२८२ कोडिबायाल, लक्ख अडवन्ना । छत्तीस सहस असीइं, सासय बिंबाई पणमामि || १५४२ क्रोड, ५९ लाख, ३६ हजार, ८० शाश्वत जिनबिम्बों को मैं नमस्कार करता हूँ । १५,४२,५९,३६,०८० (समझ-) यहाँ अपनी चारों ओर भूत वर्तमान-भावी सब २॥ द्वीपवर्ती जिनबिम्बों को देख नमस्कार करना है । एवं 'सत्ताणवइ०' 'पनरस० ́ २ गाथा से तीन लोकवर्ती शाश्वत मंदिरों व बिम्बों को नमस्कार करना है । ● उवसग्गहर सूत्र उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहर विस- निन्नासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ॥ विसहर फुलिंगमंत, कंठे धारेइ जो सया मणुओ । तस्स गह-रोगमारी, दुट्ठजरा जंति उवसामं ।। चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नरतिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोगच्चं ॥ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिन्तामणि- कप्पपायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥ इअ संथुओ महायस !, भत्तिब्भरनिब्भरेण हिअएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ! II समझ : यहां चार गाथा में क्रमशः पार्श्वप्रभु-फुलिंग मंत्र-प्रणाम व सम्यक्त्व की महिमा बताई, (१) प्रभु उपसर्गहर-विषनाशक मंगलकल्याण के स्थान है । (२) मंत्र ग्रह-रोगादि पीड़ा-शामक । (३) प्रणाम मनुष्य- देवगति दुःख वारक । (५) इस प्रकार, हे महायशस्वी प्रभो ! बहुत भक्ति से भरपूर हृदय बनाकर की स्तुति की गई । अतः हे देव ! हे (४) सम्यक्त्व मोक्षदायी । ★ अन्तिम गाथा में भक्तिसभर स्तुति के फल में पार्श्व जिनचन्द्र ! (मुझे) जनम जनम जन्मोजन्म बोधि की याचना की गई । में बोधि (सम्यक्त्व, जैन धर्म) दीजिए । ३९ (१) उपसर्गहर पार्श्वयक्ष (या सामीप्य) है जिनका, (या आशारहित), कर्मसमूह से मुक्त, सर्पविष का नाश करनेवाले, (व) मंगल-कल्याण के आवास श्री पार्श्वनाथ प्रभु को मैं वंदन करता हूँ । (२) 'विसहरफुलिंग' मन्त्र जो मनुष्य हमेशा रटता है, उसके दुष्टग्रह, बाह्याभ्यन्तर रोग, हैजा (या मारण प्रयोग) व दुष्ट ज्वरवर्ग उपशान्त होते हैं । (३) (हे प्रभो !) आप का मन्त्र तो दूर रहो, किन्तु आप को किया प्रणाम भी बहुत फलदायी है । (इससे) मनुष्य व तिर्यंच में भी दुःख व दुर्गति (भव-दुर्दशा) नहीं पाता है। (४) चिन्तामणि व कल्पवृक्ष से भी अधिक (समर्थ) तेरा सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाए तो जीव जरामरणरहित स्थान (मोक्ष) को बिना विघ्न प्राप्त कर लेते हैं । wwwwww.jainelibraryPage Navigation
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