Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra Author(s): Bhuvanbhanusuri Publisher: Divya Darshan TrustPage 88
________________ आणवणे पेसवणे, नियत मर्यादा के बाहर से १) वस्तु मंगवाना २) वस्तु बाहर भेजना सद्दे रूवे अ पुग्गलक्खेवे ।। ३) आवाज द्वारा या ४) मुखदर्शन द्वारा अपनी उपस्थिति बतलाना देसावगासिअम्मी, ५) कंकर, पत्थर आदि फेंकना, ये दूसरे देशावगाशिक शिक्षाव्रत बीए सिक्खावए निंदे ||२८|| के पाँच अतिचार से बंधे हुए अशुभ कर्म की मैं निंदा करता हुँ ॥२८॥ संथारूच्चारविही (१-२-३-४) संथारा की भूमि व परठवणे की भूमि का प्रतिलेखन व पमाय तह चेव भोयणाभोए । प्रमार्जन में प्रमाद होने से ५) भोजनादि की चिंता द्वारा पौषध उपवास नामक पोसहविहि-विवरीए, तीसरे शिक्षाव्रत में जो कोइ विपरितता हुई हो (अतिचारों का सेवन हुआ हो) तईए सिक्खावए निंदे ||२९|| उसकी मैं निंदा करता हूँ ।।२९।। सच्चित्ते निक्खिवणे, मुनि को दान देने योग्य वस्तु में १) सचित्त वस्तु डालना २) सचित्त वस्तु से पिहिणे ववएस मच्छरे चेव । ढंकना ३) परव्यपदेश (दूसरों के बहाने देना या न देना) ४) ईर्ष्या-अभिमान से कालाइक्कमदाणे, दान देना व न देना तथा ५) काल बीत जाने पर दान देने की विनंती करनी व आग्रह करना, चौथे शिक्षाव्रत अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार से बंधे हुए चउत्थ-सिक्खावए निंदे ||३०|| अशुभकर्म की मैं निंदा करता हूँ ||३०॥ सुहिएसु अ दुहिएसु अ, सुखी अथवा दुःखी असंयमी पर राग या द्वेष से मैने जो अनुकंपा की हो जा मे असंजएसु अणुकंपा। उसकी मैं निंदा व गर्दा करता हुँ । ज्ञानादि उत्तम हितवाले, ग्लान और गुरू की रागेण व दोसेण व, निश्रामें विचरते मुनिओं की पूर्व के प्रेम के कारण या निंदा की द्रष्टि से जो तं निंदे तं च गरिहामि ||३१।। (दूषित) भक्ति की हो, उसकी मैं निंदा व गर्दा करता हूँ | ||३१|| साहस संविभागो, वहोराने लायक प्रासुक (निर्दोष) द्रव्य होने पर भी तपस्वी, चारित्रशील व | तटोगने लायक न कओ तव-चरण-करणजुत्तेसु । क्रियापात्र मुनिराज को वहोराया न हो तो उसकी मैं निंदा करता हूँ व गरे । संते फासुअदाणे, करता हूँ ||३२|| तं निंदे तं च गरिहामि ||३२।। इहलोए परलोए, १) इहलोक संबंधी भोग की आसक्ति २) परलोक संबंधी भोग की आसक्ति जीविअ-मरणे अ आसंसपओगे। ३) दीर्घ जीवन की आसक्ति ४) शीघ्र मरण की इच्छा, व ५) कामभोग की पंचविहो अडयारो, इच्छा, ये (संलेखना व्रत के) पाँच प्रकार के अतिचार मुझे मरण के अंतसमय | मा मज्झ हुज्ज मरणंते ||३३|| में भी न हो ॥३३॥ काएण काइअस्स, मन, वचन व काया के अशुभ योग से सर्व व्रतोंमें मुझे जो अतिचार लगे हो पडिक्कमे वाइअस्स वायाए। उसका मैं शुभ काययोग से, शुभ वचनयोग से व शुभ मनोयोग से प्रतिक्रमण मणसा माणसिअस्स, करता हूँ ||३४|| सव्वस्स वयाइआरस्स ||३४|| वंदण-वय-सिक्खा -गारवेसु देववंदन या गुरूवंदन के विषय में, बारहव्रत के विषयमें, पोरिसि आदि पच्चक्खाण सन्ना-कसाय-दंडेसु । में, सूत्रार्थ का ग्रहण व क्रिया का आसेवन रूप शिक्षा, रिद्धि-रस-शाता का गुत्तीसु अ समिइसु अ, गौरव (अभिमान), आहार-भय-मैथुन-परिग्रह संज्ञा, चार कषाय, मन-वचनजो अइआरो अ तं निंदे ||३५|| कायारूप तीन दंड तथा पाँच समिति व तीन गुप्ति के पालन के विषय में प्रमाद से जो अतिचार लगा हो उसकी मैं निंदा करता हूँ ||३५|| गाथा २८ : वस्त्र लाता, पुस्तक ले जाता, किसी को बुलाता, कंकर डालने की क्रिया करता...इस तरह अनेक निषिद्ध प्रवृत्ति कर रहा सामायिक वस्त्रधारी श्रावक दिखाया गया है | चित्र (समझ-) गाथा २९ : पौषधव्रतमें अविधिपूर्वक की हुई क्रियाओं के प्रतीक रूप संथारा बिछाना, काजा लेना तथा मात्रु परठना ये तीन क्रियाएं बतायी. हैं | गाथा ३३ : पाँच प्रकारकी आशंसा-इहलोककी आशंसामें राज्यसुखादि की आशंसा देखनी, इस प्रकार क्रमसे देवसुख, जीवित सुख, आत्महत्या तथा कामभोग की आशंसा देखनी । kainguarPage Navigation
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