Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 12
________________ कारिका २] प्रशमरतिप्रकरणम् मोहको नहीं जीत सके। उन्हें आपका पद प्राप्त नहीं हो सका। उनका प्रयत्न निष्फल गया और अन्तमें वे आपकी ही सफल शरणमें आगये।" _भरतक्षेत्रसंभूततीर्थकृच्चतुर्विंशतः प्रकरणकारो नमस्यां विधाय संम्प्रति समस्तकर्मभूमिवर्तिनो जिनादीन् प्रणिधित्सुराह भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए चौबीस तीर्थकरोंको नमस्कार करके अब समस्त कर्मभूमिके तीर्थकर आदिको नमस्कार करनेकी इच्छासे ग्रन्थकार कहते हैं: जिनसिद्धाचार्योपाध्यायान प्रणिपत्य सर्वसाधूंश्च । प्रशमरतिस्थैर्यार्थं वक्ष्ये जिनशासनात् किञ्चित् ॥२॥ __टीका-पूर्वोक्तलक्षणा जिनाः, तीर्थकृतः सामान्यकेवलिनो वा। सिद्धास्तु निष्ठितसकलप्रयोजनाः सर्कल कर्मविनिर्मोक्षाल्लोकशिखराध्यासिनः स्वाधीनसुखाः साद्यपर्यवसानाः । पञ्चविधाचारस्थास्तदुपदेशदानादाचार्याः परमार्षप्रवचनार्थनिरूपणे निपुणाः। उपेत्य उपगम्य यतोऽधीयन्ते शिष्याः इति उपाध्यायाः सकलदोषरहितसूत्रसंप्रदाः । अत्र द्वन्द्वसमासस्तान् । ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणाभिः पौरुषेयीभिः शक्तिभिर्मोक्षं साधयन्तीति साधवः । सर्वग्रहणाद्येऽयंन्ये प्रतिपन्नाः समस्तसावद्ययोगविरतिलक्षणं सामायिकं तेऽपि प्रणिपातार्हा इति दर्शयति । अथवा सर्वशब्दः सर्वानवापेक्षते मध्यवर्तित्वात् । 'सर्वान् जिनान् सर्वान् सिद्धान्, सर्वानाचार्यान्, सर्वानुपाध्यायान, सर्वसाधूंश्च प्रणिपत्य ' इति प्रत्येकमभिसम्बन्धः। एवमिष्टदेवतोद्देशेनाभिहितः प्रणिपातः । तदनन्तरमारादुपकारित्वादाचार्यादीनपि प्रणम्य अन्वर्थसंज्ञायुक्तप्रकरणक्रियां प्रतिजानीते, प्रतिविशिष्टप्रयोजनं च दर्शयति कारिकार्दैन–'प्रशमरतिस्थैर्यार्थम् ' इति। " अर्थ-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओंको नमस्कार करके 'प्रशमरति' अर्थात् वैराग्यमें प्रीतिको दृढ़ करनेके लिए जिनशासनके आधारपर कुछ कहूँगा। भावार्थ-जिनका लक्षण पहले कह आये हैं । तीर्थंकरोंको अथवा सामान्य केवलियोंको जिन कहते हैं। जिनके सभी प्रयोजन पूरे हो चुके हैं, अर्थात् जो कृतकृत्य हैं । जिन्हें कुछ करना बाकी नहीं है। तथा समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जानसे जो लोकके अग्र भागमें विराजमान हैं, जिनका सुख स्वाधीन है और जो सादि होते हुए भी अन्तरहित हैं, वे सिद्ध हैं। जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार और तपाचार इन पाँच आचारोंका स्वयं आचरण करते हैं और दूसरोंको उनका उपदेश देते हैं, वे आचार्य हैं । ये परमार्थके लिए लाभकारी शास्त्रके अर्थ करनेमें निपुण होते हैं, अर्थात् जिनागमके ज्ञाता और कुशल व्याख्याता होते हैं। जिनके समीपमें जाकर शिष्यवर्ग सकल दोषोंसे रहित सूत्र-ग्रन्थों का अध्ययन करता है, वे १ साम्प्रतं मु०। २ सर्वक-मु०। ३-श भावाद्वा प०। ४ पारमर्षप्र-१०। ५ सूत्रप्रदाः पर। ६–ोप्यद्यप्र-मु०। ५ सर्वोपाध्यायान् मु० ।

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