Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 9
________________ से भारत और भारत के बाहिर जैन धर्म का प्रचार करने में संलग्न थे । यह भी कहा जाता है कि सम्राट् संप्रति ने १२५००० नये जैन मंदिर बनाये थे। इस हालत में उन्होंने जैन श्रमणों के रहने के लिये उपाश्रय भी अवश्य बनाए होंगे और वे भी मंदिरों के पास या मंदिरों के अन्तर्गत ही एक विभाग में, जिससे कि सर्व साधारण को देव गुरु की उपासना एवं वन्दन, पूजन व्याख्यान श्रवण श्रादि की सुविधा रहे । आगे चल कर वे उपाश्रय ही चैत्यवासियों के स्थानक बन गए हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कारण एक तो भद्रबाहु के समय अकाल का बुरा असर था ही, दूसरा सुहस्तीसूरि के समय भी दुष्काल था, तीसरा आगे चल कर आय वज्रसूरि के समय भी एक भयङ्कर दुर्भिक्ष पड़ा था जिनकी भीषण मार ने दुनियां में त्राहि-त्राहि मचा दी थी, अर्थात् भद्रबाहु के समय बनवासी साधु वसतिवासी हुए । आर्य सुहुस्तीसूरि के समय जैन निग्रथों ने मन्दिर के एक विभाग के उपाश्रय का आश्रय लिया, बाद वज्रस्वामी के समय के पूर्व ही वे ठीक चैत्यवास के रूप में परिणत हो गए। __इस विषय का एक प्रमाण 'प्राभाविक चरित्र' में उपलब्ध होता है कि कोरंटपुर के महावीर मन्दिर के में एक देवचंद्रोपाध्याय & “अस्ति सप्तशती देशो, निवेशो धर्म कर्मणाम् । यहानेशभिया भेजु, स्ते राज शरणं गजाः ॥४॥ तत्र कोरण्टकं नाम, पुर मस्त्युन्नता श्रयम् । द्विजिह्वविमुखा यत्र, विनता नन्दना जनाः ॥ ५॥ तत्रास्ति श्री महावीर चैत्यं चैत्यं दधद् दृढम् ।

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