Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 8
________________ ८ ) कासमीपता से सुप्राप्य हो जाना, अतः नागरिक संसर्ग भय से लज्जा निवारणार्थ विशेष वस्त्रों का रखना आवश्यक भी प्रतीत हुआ हो और कुछ उस नगर संपर्क से भी साधुओं की निःस्पृह श्रात्माएँ प्रलोभनों में फँस निर्बल हो गई हों। अन्यथा श्री श्राचारांग सूत्र द्वितीय श्रुत स्कंध पात्र ऐषणा नामकाध्ययन में जैननिग्रंथों' को पहिले तो अचेलक ( निर्वस्त्र ) रहना ही लिखा है पर बाद में एक दो तीन वस्त्र पात्रादि रखने की छूट दे दी है । शायद इसका आशय यह हो कि वस्त्र पात्र रखने वाले रक्खें और नहीं रखने वाले नहीं रक्खें, किन्तु सूत्रकार ने इस विषय स्थापन उत्थापन करने का कोई विशेष झगड़ा नहीं रक्खा । वस्त्र पात्रादिकों का विशेष परिमाण में रखना तो केवल नगरों में आने के बाद ही हुआ है क्योंकि वहाँ इन पात्रादिकों की तथा सुरक्षित स्थान एवं दोनों की सप्राप्ति सहज थी, और इसी कारण से आचार्य भद्रबाहु को इस विषय के विशेष नियमों की प्रायः नयी सृष्टि रचनी पड़ी हो । आचार्य भद्रबाहु के समय यद्यपि द्वादश वर्षीय दुष्काल पड़ा था और इससे अनेक निग्रंथों ने वसति-वास भी किया परन्तु उस समय सुविहितों का सर्वतोभावेन अभाव नहीं था; श्रपितु भद्रबाहु के बाद स्थूलिभद्र भी चौदह पूर्वधर थे और स्थूलभद्र के अनन्तर उनके पट्टधर दो आचार्य हुए ( १ ) श्रार्य महागिरि ( २ ) आर्य सुहस्ती सूरि - जिनमें श्रार्य महागिरि तो जंगलों में रह कर जिनकल्पी की तुलना कर रहे थे, अर्थात् व पात्र रहित हो जंगलों में कठिन तपश्चर्या करते थे और आर्य सुहस्तीसूरि उज्जैन के राजा संप्रति को जैन बना उसकी सहायता

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