Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 22
________________ ( २२ ) अजैनों को जैन बनाना व अनेक राजा महाराजाओं को जैन धर्म के भक्त बनाना, अनेक अपूर्व ग्रंथों का निर्माण करवाना, जैन मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाना और नये-नये नामधारी क्रिया उद्वारकों के सामने डट के खड़ा रहना क्या यह चैत्यवासियों की शासन प्रतिम सेवा कही जा सकती है ? क्या चैत्यवासियों के अनन्तर ऐसी दृढ़ सेवा अन्य किसी ने कर के बताई है ? (किसी ने नहीं.) उन्होंने तो उल्टा अपने पैरों तले ही कुल्हाड़ा मारा है इसके अतिरिक्त कोई भी कार्य नहीं किया । चैत्यवास करने में तो उन दीर्घ दृष्टि वालों की शुभ भावना और उज्ज्वल उद्देश्य ही कारण भूत थे परन्तु बाद में आपत् काल से उस में विकृति भी हो गई तो भी वे इतने पतित नहीं हुए थे कि क्रिया- उद्धारकों को “बालों के बदले शिर काट डालने की धृष्टता करनी पड़ी। "" चैत्यवासियों के साथ में एक समूह और भी था जिसका नाम था " निगम वादी" जैसे श्रागम वादी आगमों को मानते थे वैसे ही निगमवादी निगमों को मानते थे, उन निगमों की संख्या ३६ थी और वे मन्दिर मूर्तियों की अञ्जन शलाका प्रतिष्ठा आदि धर्म कार्य, और जैनों के १६ संस्कार तथा और सब कार्य करवाते थे, पर क्रिया उद्धारकों की क्रूर दृष्टि से वे भी बच नहीं सके । इसका फल यह हुआ कि धार्मिक कार्य तो आगमवादियों को हाथ में लेने पड़े जिनको कि वे सावद्य बतला कर उनसे पहिले दूर रहते थे अर्थात् सावद्य कार्यों में आदेश नहीं करते थे । और जैन गृहस्थों के सब संस्कार विधर्मी ब्राह्मणों के हाथों में चले * देखो ही• हं० सं० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग दूसरा ।

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