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( २६ ) अपना एक अलग ही पंथ चलाया अनन्तर इसमें से भी अनेक मत, पंथ, टोला, सिगाड़ आदि निकल-निकल के वह भी छिन्न भिन्न हो गया।
( ३ ) जिन चैत्यवासियों से अलग हो कई लोगों ने क्रिया उद्धार किया था श्राखिर उनका भी पतन हो गया और उनमें श्रीपूज्य यति आदि हो गए किन्तु इन लोगों ने तो फिर भी पूर्वाचार्यों का उपकार माना और उनके ग्रंथों का बहुत मान किया तथा क्रिया से शिथिल हो जाने पर भी इन यति आदिकों ने कई राजा महाराजाओं पर अपना प्रभाव डाला, तथा उन राजा बादशाहों ने भी इन श्री पूज्य यत्तियों आदिकों का पूरा आदर मान किया और इस कारण से जैन धर्म जगत् में फिर चमकने लगा।
परन्तु मैं ऊपर लिख आया हूँ कि क्रिया उद्धारकों ने शासन में एक ऐसा रोग फैला दिया था कि जिससे स्वच्छंदता पूर्वक हर एक व्यक्ति अपने पूर्व मार्ग को छोड़ नये मार्ग का निर्माण कर सकता था । जब इन श्री पूज्यों और यतियों का ठीक संगठन जम गया था तो इनमें से एक पन्यास सत्यविजय ने फिर से क्रिया उद्धार का झंडा उठाया । पं० सत्यविजय में इतनी योग्यता तो अवश्य थी कि वह न तो अपने गुरु से विमुख हुए और न कभी उनके अवगुण वाद कहे फिर भी इसका नतीजा तो जो पहिले वालों का हुआ था वही हुआ । वे नहीं तो उनके साथियों ने एवं संतान ने उन्ही श्रीपूज्य और यतियों के सङ्गठन को छिन्न भिन्न कर डाला । शेष थोड़ा बहुत शासन का मशाला जो उन श्री
बाद में बीजामती गुलाब पंथी अजीवपन्थी आदि वि. सं. १८१५ में ढूंठिया भिखमजी ने तेरह पन्थी मत निकाला ।