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अलौकिक विद्याएं, जो सब घर धनियों (चैत्यवासियों ) के पास में थीं उन सबको छोड़ उनकी परवाह न करते हुए केवल झोली झण्डा हाथ में लेकर क्रिया उद्धार के नाम से घर बाहिर निकलना उचित समझा । पर ऐसा करके भी वे कुछ कर नहीं सके केवल द्वेष वश जिस घर से निकले थे उनकी निंदा मात्र कर उनको निर्मल करने का अथक परिश्रम किया और इसके लिए झूठे सच्चे श्रनेकों प्रपंच रचे, संघ में फूट डाली; परन्तु चैत्यवासी भी किसी ऐसे-तैसे माली के बाग़ की मूली नहीं थे जिनको कि ये नामधारी क्रिया उद्धारक सहसा उखाड़ दूर फेंक देते। उस समय ये क्रियोद्धारक तो हिताऽहित की कर्तव्य बुद्धि को भी भूल गए थे, जिससे इन्होंने इतना ही नहीं सोचा कि जिस मूल से हम पैदा हुए हैं और अब उसी मूल को हम उच्छेदन करना चाहते हैं तो ऐसा करने से हम भविष्य में दुःखी होंगे या सुखी ? हमारी उन्नति होगी या अवनति ? यह बात केवल उन चैत्यवासियों के समकालीन क्रिया उद्धारकों के लिए ही नहीं थी पर हम तो जितने इस कोटि के क्रिया उद्धारकों को देखते हैं उन सबके लिए भी यही बात है । और इस कुप्रवृत्ति से उनका भी पतन ही हुआ है न कि उदय जैसे कि:
( १ ) चैत्यवासियों के संगठन को छिन्न-भिन्न करने वाले क्रिया उद्धारक आगे चल कर कई नामधारी गच्छों में विभक्त हो कर आपस में झगड़ने लगे उस समय भी चैत्यवासियों का सम्मान बड़े बड़े राजा महाराजा एवं समूचा जैन समाज करता था । परन्तु क्रिया उद्धारकों का सम्मान, उनके हिस्से में जितने भद्रिक श्रये वे ही करते थे । आगे चल कर वे क्रिया उद्धारक भी
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