Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ ( ११ ) फिर भी उस समय की एक यह बड़ी भारी विशेषता थी कि क्या सुविहित और क्या चैत्यवासी जैनागमों पर सब की अटूट श्रद्धा थी। जैनागमों में केवल एक मात्रा भी न्यूनाधिक कहने अर्थात् उत्सूत्र बोलने में वे वज्रपाप और अनंत संसार बढ़ने का बड़ा भारी भय रखते थे । चैत्यवासियों के मध्यकाल में रची हुई चूर्णियों एवं भाष्यों को सब मानते थे । क्रिया में सामान्य विशेषता होने पर भी जिन-वचन स्थापन उत्थापन का कोई भी झगड़ा उस समय पाया नहीं जाता है । आचार्य हरिभद्र सूरि अपने संबोध प्रकरणादि ग्रन्थों में चैत्यवासियों की अनुचित प्रवृत्ति की घोषणा कर चुके थे, पर ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चैत्यवासी अपनी प्रवृत्ति की पुष्टि के लिये अमुक ग्रन्थ बनाते या बताते थे । श्राचार्य जिनेश्वरसूरि के गुरू आचार्य वर्धमानसूरि ८४ चैत्यों के स्वामी + होने पर भी आपकी कराई हुई विमला । * "चेइय मंडइ वासां । पुप्परंभाइ बिच वासितं । देवइ दव्व भोगो । जिणहर सालाए कारणं च ॥ aders fafar aort | अइसिय सद्धद्द धुव वासाई । पहिरज्जइ जत्थ गेण । तं गच्छ मूल गुण मुक् ॥ संनिह मह कम्मं । जल फल कुसुमाइ सब कचित | निच्च दु तिवार भोयण । विगइ लवगांई तंबोलं ।” "सबोध प्रकरण” + तत्रासीत्प्रशम श्रीभिवर्द्धमान श्री वर्द्धमान इत्याख्य सूरि चतुर्भिरधिकाशीति चैत्यानां सिद्धान्ताभ्यासत: सत्य तत्व विज्ञाय गुणोदधि । संसार पार भूः ॥ येन तत्यजे । संसृते ॥ - प्रभावक चरित्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34