Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ ( १६ ) शिथिलता बताई है वह भी वास्तव में कहाँ तक ठीक है ? और उसमें अतिशयोक्ति का भाग कितना है ? इस विषय में हम जब तक दोनों ओर के ग्रंथों को भली भांति न पढ़ लें तब तक कोई ठीक निर्णय नहीं कर सकते। चैत्यवास के समय का इतिहास देखने से इतना पता तो सहज ही में मिल सकता है कि जैन धर्म का जितना गौरव, मान, प्रतिष्ठा और उसके प्रचार में सच्चे हृदय की लगन चैत्यवासियों में थी उतनी शायद ही किसी अन्य क्रिया उद्धारक वर्ग में रही हो तथा चैत्यवासियों के समय में जनता की जितनी श्रद्धा धर्म पर थी उतनी बाद में नहीं पाई जाती है । जैन समाज का जैसा अभ्युदय चैत्यवासियों के समय था वैसा बाद में कभी नहीं हुआ। अतएव हमारी निष्पक्षपात राय में तो चैत्यवास का समय जैनों की उत्कृष्ट उन्नति का ही समय था यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं है। चैत्यवामी लोग यदि राज वैभव जैसे ठाठ-पाट से रहते हों अथवा क्रिया में अनेक आपत्तियों के कारण शैथिल्य आ गया हो तो बात दूसरी है । फिर भी यह तो सत्य ही है कि आज उनकी व्यर्थं भर-पेट निन्दा करने वाले कलियुगी जीवों से तो वे हजार दर्जे ही नहीं अपितु लाख दर्जे अच्छे थे क्योंकिः १-चैत्यवासी मन्दिर के एक विभाग में रहते थे, और आज के कई नामधारी क्रिया-पात्र हजारों लाखों रुपयों की लागत के आलीशान मकानों में स्वतन्त्र रुप से रहते हैं। ऐसे मकान बिचारे गृहस्थों को तो सैकड़ों रुपये किराया के खर्च करने पर भी हाथ नहीं लगते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34