Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 14
________________ ( १४ ) तक भी वह विरोध विद्यमान है । किन्तु प्रसङ्गोपात्त मैं इतना ही कह कर अब चैत्यवासियों के विषय में मैंने जो कुछ अभ्यास किया है, उसमें से सार रूप पाठकों की जानकारी के लिए यहां लिख देता हूँ। __विक्रम की पहिली शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक का समय चैत्यवासी-युग कहा जाता है। इस बीच में कई एक क्रियोद्धारक भी हुए थे पर प्रबलता चैत्यवासियों की ही रही। .. "चैत्यवासी साधु-चैत्य (मन्दिर) में रहने वाले साधु" यदि चैत्यवासी साधु का इतना ही अर्थ होता हो तो यह उतना बुरा नहीं है जिससे कि हम घृणा करें । क्योंकि खास तीर्थङ्करो के पास भी साधु रहते थे, और वहाँ आहार पानी करना आदि सब क्रियाएं करते थे । इतना ही क्यों पर श्रावकों के घरों में भी तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ रहती थीं और आज भी हैं । साधुओं के उपाश्रयों में भी जैन मूर्तियाँ थीं और इस समय भी कई एक उपाश्रयों में हैं । प्राचीन ग्रन्थों एवं चरित्रों के से भी पता चलता है कि साधु साध्वियों के उपाश्रयों में मूर्तियाँ थीं, इस हालत में यदि जैन साधु मन्दिर के एक विभाग में ठहरते हों तो क्या हानि है ? इससे तो उल्टा लाभ है जैसे कि मन्दिरों की रक्षा, गृहस्थों के भावों की वृद्धि तथा मन्दिर उपाश्रय पास २ होने से देव गुरु का वन्दन पूजन और व्याख्यान श्रवणादि में गृहस्थों को भी सुविधा रहती है । इस पर भी हमारे चिरकाल से संस्कार . *आचार्य हरिभद्रसूरि कृत समरादित्य कथामें लिखा है कि साध्वियों के उपाश्रय में मूर्तियां थीं।

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