Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 18
________________ ( १८ ) भी मूर्तियाँ और पादुकाएँ बननी प्रारम्भ हो गई हैं। इस कार्य में अब सध्वियां भी पीछे नहीं रही हैं। ६-चैत्यवासियों में ऐसे वैसे को पदवी नहीं दी जाती थी, पर आज तो चाहे सदाचारी हो या दुराचारी, पठित हो या अपठित, । योग्य हो या अयोग्य सभी के लिये पदवियों का का बाजार खुला हुआ है । इतना ही क्यों पर जो व्यभिचार के कोड़े और इन्द्रियों के गुलाम बने हुये हैं, वे भी सूरीश्वर बन बैठे हैं। . ___७-जिन चैत्यवासियों की हम निन्दा करते हैं तो वे चैत्यवासी क्या आज के पतितों से भी बढ़ कर शिथिल थे ? (नहीं कभी नहीं !) ____ यदि कोई व्यक्ति निष्पक्ष हो चैत्यवासियों के समय का इतिहास पढ़े तो मालूम होगा कि चैत्यवासियों ने किस प्रकार अनेक कठिनाइयों का सामना करके भी उस भापत समय में जैन धर्म को जीवित ही नहीं किन्तु उसे राष्ट्रीय धर्म बनाये रक्खा था। क्या यह चैत्यवासियों का जैन समाज पर कम उपकार है ? जरा विचार कीजिये। ___ भगवान महावीर के स्याद्वाद सिद्धान्त में सब को स्थान मिलता है, जैसे:- कई एक केवल ज्ञान ध्यान में मस्त रहते हैं, तो कई किया पात्र क्रिया की धुन में ही लीन रहते हैं। इसीभांति अनेकों धर्म प्रचारक यदि अपने धर्म प्रचार कार्य को ही अक्षुण्ण बनाये बैठे हैं तो कई विनय भक्ति व्यावच्च करने वाले उसी में मग्न रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि जिसकी जिसमें रुचि हो वह उन्हीं कामों को करता है क्योंकि आत्म-कल्याण के एक नहीं..

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