Book Title: Prabhavaka Charita
Author(s): Prabhachandracharya, Jinvijay
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ प्रास्ताविक वक्तव्य और पूज्यपाद प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराज द्वारा, पाटणके भण्डारोंमेंसे इसकी पुरातन प्रतियां मंगवा कर, ग्रन्थका पुनः संशोधन करने लगे । प्रायः इसी समय, हमने भी इस 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला का कार्य प्रारंभ किया और इसमें प्रबन्धचिन्तामणि आदि सभी प्रधान प्रधान जैन ऐतिहासिक ग्रन्थोंका, अपने ढंगसे उत्तम प्रकारका, प्रकाशन करनेका आयोजन किया। डॉ० महोदयने हमारे इस आयोजनकी खबर पा कर अपना कार्य स्थगित कर दिया; और हमारी प्रार्थना पर, पाटणके भण्डारकी वे हस्तलिखित प्रतियां, विद्वद्रन मुनिवर श्रीपुण्यविजयजी महाराजकी सूचनानुसार, हमारे पास भेज दीं। यहां पर हम अपने इन सौहार्दशील शास्त्री महाशयके अनन्य सौजन्यके प्रति, बडी कृतज्ञताके साथ, हार्दिक आभारभाव प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य समझते हैं। प्रस्तुत आवृत्तिके संपादनमें हमने मुख्यतया निम्न लिखित प्रतियोंका उपयोग किया है A संज्ञक प्रति- यह प्रति पाटणके संघके भण्डारकी है। इसकी पत्र संख्या १४३ हैं जिनमेंसे बीचोंके दोएक पत्र लुप्त हो गये हैं । यद्यपि है यह कागज-ही-की प्रति, तथापि इसके पन्नोंका रंग-ढंग ताडपत्रके पन्नोंका-सा है । इसका कागज खुदरा और कुछ मोग है । इसके पन्नोंकी लंबाई प्रायः १४ इंच और चौडाई ३६ इंच जितनी है । पन्नेके प्रत्येक पार्श्व पर ११-११ पंक्तियां लिखी हुई हैं। प्रथम पत्रके दूसरे पार्श्वसे लिखान प्रारंभ किया गया है । इसमें दाहिने भागकी तरफ, २३+३३ इंच जितनी जगह कोरी छोड रखी है जिसमें किसी तीर्थंकरकी प्रतिकृति-जैसी की अन्य दूसरी प्रति B में उपलब्ध है -चित्रित करनेकी कल्पना होगी। इसी तरह दूसरे पत्र के प्रथम पार्श्वमें भी दाहिने भागकी और, उतनी ही जगह, किसी अन्य-आचार्य वगैरहकी-प्रतिकृतिके लि रखी गई है । मालूम होता है तत्काल कोई चित्रकार न मिलनेसे इसमें वे चित्र अंकित नहीं किये गये । प्रतिके अन्तमें लिपिकार वगैरहका कोई नाम निर्देश नहीं है इसलिये यह ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि यह कबकी लिखी हुई है । परंतु इसकी लिखावट और कागज आदिकी स्थितिको देखते हुए, अनुमान किया जा सकता है कि यह वि० सं० १४०० के पूर्व, २५-५० वर्षके अरसेमें लिखी हुई होनी चाहिए। और इस दृष्टिसे यह, हमें प्राप्त सब प्रतियोंमें प्राचीनतम है । इसकी वाचना प्रायः शुद्ध है । शायद लिपिकारको, उस पुरातन आदर्शका कोई कोई अक्षर समझमें नहीं आया है जिसके ऊपरसे उसने अपनी इस प्रतिकी नकल की है, इसलिये उसने बीच बीचमें कोई कोई पंक्तिमें, उस अक्षरके लिये'-'ऐसी खाली शिरोरेखा दे कर कोरी जगह छोड दी है । पीछेसे किसी विद्वान्ने इस प्रतिका कुछ संशोधन भी किया है और जो कोई अशुद्धि उसकी समझमें आई उसे सुधारा भी है । B संज्ञक प्रति- यह प्रति भी पाटणके संघके ही भण्डारकी है । इसकी पत्र संख्या १११ है । इसका कागज कुछ मुलायम और कुछ पतला है । इसके पन्नोंकी लंबाई १० इंच और चौडाई ४३ इंच जितनी है । पन्नेके प्रत्येक पार्श्वपर १७-१७ पंक्तियां लिखी हुई हैं। लिपि सुन्दर है पर वाचना वैसी शुद्ध नहीं है । पाठ-अशुद्धि बहुत उपलब्ध होती है । यह संवत् १५५६ में, गंभीरपुरमें, आगमगच्छके यति अमरसागरके हाथकी लिखी हुई है । यद्यपि अमरसागरने अपने नामको उपा० ( उपाध्याय) के बड़े विशेषणसे विभूषित किया है, परंतु उस शब्दके पहले 'शिष्यानुशिष्य' के बदले लिखे हुए 'शष्यानुशष्य' और 'लिखित' के बदले 'लखितं' शब्द लिखा हुआ देख कर मानना पडता है कि लिपिकारको संस्कृतका कुछ भी ज्ञान नहीं था । और इसीलिये उसने प्रतिलिपि करनेमें बहुतसी अशुद्धियां लिख डाली हैं । लिपिकारने अपने समय आदिका परिचय कराने वाला निम्न लिखित अन्तिम पुष्पिका-लेख लिखा है___"ऋतु-बाण-बाण-चंद्रे वर्षे पोषे च बहुलप्रतिपत्तौ गुरुवार पुष्य ऐंद्रे गंभीरपुरे च इदमलिषत् ॥ ॥ खस्ति श्री संवत् १५५६ वर्षे शाके १४२१ प्रवर्तमाने पोसमासे असितपक्षे

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 252