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येरे।। विरतिथी कय कर्मनो करतां, शिवपुर मा रग वहीयेरे॥शाश्वत ॥ ५॥ बाहिर अंतर प रम ए तीन, आत्म परिणति समजोरे॥परमात मपद लक्ष्य विचारी,अंतर आतम रमजोरेशा श्वत ॥६॥शरीर वाणो मनश्री जूदो, आत्मव्य चित्त धरतोरे॥ अरूपी असंगी निर्मल, ता सध्यान मन करतोरे ॥शाश्वत ॥णाराग ष मोहरायना जोड़ा, तेहनी साथे वढतोरे । आत्मा आप स्वरूपे खेली, कपकश्रेणीए चढतोरे ॥शा॥७॥वीर्योल्लास वधे गुण प्रगटे, कर्म कलंक खपावरे॥शुक्लध्यान पायाए चढतो, केवलज्ञान गुण पावरे ॥शा ॥ ए ॥ आयुष्य स्थिति पूर्ण करीने, शरीर संग दूर करतोरे॥ज न्म मरगना फेरा टाळी, सादि अनंत स्थिति व रतोरे ॥शा ॥१०॥5:खानावरूप मुक्ति मा ने,नैयाधीक मतवादी॥सर्व व्यापक मुक्ति मा
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