Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 01
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 5
________________ रात कुछ समय होता है गहरी नींद का और कुछ समय होता है सपनों का। एक आवर्तन है, एक लय है। जैसे रात और दिन के आने जाने की एक लय है। आरम्भ में तुम गहरी नींद में उतर जाते हो, कोई चालीस या पैंतालीस मिनट के लिए। फिर स्वप्नवस्था प्रारम्भ होती है और तुम सपने देखने लगते हो। फिर स्वप्नहीन निद्रा आ जाती है, और उसके बाद फिर से सपनों का आना शुरू हो जाता है। सारी रात यह क्रम चलता है। यदि तम्हारी नींद में उस समय बाधा आये जब स्वप्नरहित गहरी नींद में सो रहे हो, तो सुबह तुम ऐसा अनुभव नहीं करोगे कि कहीं कुछ खोया है। लेकिन नींद यदि उस समय टूटे जब तुम सपने देख रहे हो तब सुबह तुम स्वयं को बिलकुल थका हुआ और निढाल-सा पाओगे। अब इन बातों को बाहर से भी जाना जा सकता है। यदि कोई सो रहा है तो तुम जान सकते हो कि वह सपने देख रहा है या नही। अगर वह सपने देख रहा है तो उसकी आंखे लगातार गतिमान हो रही होगी-मानो वह बंद आंखों से कुछ देख रहा है। जब वह स्वप्नरहित गहरी नींद में है तो उसकी आंखे गतिमान नहीं होंगी; ठहरी हुई होगी। जब आंखें गतिमान हों और तुम्हें बाधा पहुंचाई जाये, तो सुबह तुम थके-मांदे अनुभव करोगे। और यदि आंखें थिर हों और नींद तोड़ी जाये तो सुबह उठने पर कोई थकावट महसूस नहीं होती, कुछ खोता नहीं। अनेकों शोधकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य का मन सपनों पर ही पलता है। यद्यपि सपना पूर्णत एक स्वचालित वचना है। फिर यह सपनों की बात केवल रात के विषय में ही सच नहीं है; जब तुम जागे हुए होते हो तब भी मन में कुछ ऐसी ही प्रक्रिया चलती रहती है। दिन में भी तुम अनुभव कर सकते हो कि किसी समय मन में स्वप्न तैर रहे होते है और किसी समय स्वप्न हीं होते है। ___ दिन में जब सपने चल रहे है और अगर तुम कुछ कर रहे हो तो तुम अनुपस्थित–से होओगे क्योंकि कही भीतर तुम व्यस्त हो। उदाहरण के लिए, तुम यहाँ हो यदि तुम्हारा मन स्वप्निल दशा में से गुजर रहा है, तो तुम मुझे सुनोगे बिना कुछ सुने क्योंकि मन भीतर व्यस्त है। और अगर तुम ऐसी स्वप्निल दशा में नहीं हो, तो ही केवल तुम मुझे सुन सकते हो। मन दिन-रात इन्हीं अवस्थाओं के बीच डोलता रहता है-गैर-स्वप्न से स्वप्न में, फिर स्वप्न से गैर-स्वप्न में। यह एक आंतरिक लय है। इसलिए ऐसा नहीं है कि हम सिर्फ रात्रि में ही निरंतर सपने देखते है, जीवन में भी हम अपनी आशाओं को भविष्य की और प्रक्षेपित करते रहते है। वर्तमान तो लगभग हमेशा नरक जैसा है। तुम उसके साथ जी लेते हो तो उन आशाओ के सहारे ही, जिन्हें तुमने भविष्य में प्रक्षेपित कर रखा है। तुम आज जी लेते हो, आने वाले कल के भरोसे। तुम आशा किये चले जा रहे हो कि कल कुछ न कुछ घटित होगा कि कल किसी न किसी स्वर्ग के द्वार खुलेगे। वे आज तो हरगिज नहीं खुलते। और कल जब आता है तो वह कल की तरह

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