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पश्चिमी भारत की यात्रा
अवलम्बन आज लिया जाता है वह उस समय ज्ञात ही नहीं थी। चन्द के नाम से ज्ञात पृथ्वीराज रासो और मेवाड़ एवं मारवाड़ आदि के राजाओं की कुछ वंशावलियां तथा कोई छोटी-मोटी ख्यात आदि जैसी अत्यल्प लिखित सामग्री ही उसे उपलब्ध हुई थी। बाकी तो भाट, चारण, यति, ब्राह्मण आदि जनों के मुख से सुन-सुन कर हो उसने अपने इतिहास की सामग्रो इकट्ठी की थी। मुसलमानी तवारिखें उसने अवश्य पढी थीं, परन्तु हिन्दू ग्रन्थकार का लिखा कोई वैसा ग्रन्थ उसके देखने में नहीं पाया था। कश्मीर के इतिहास से संबंधित महान् संस्कृत ग्रन्थ 'राजतरंगिणी' का उसने नाम भी नहीं सुना था। गुजरात के इतिहास के मूलाधारभूत एवं सुप्रमाणित तथा सुग्रथित प्रबंधचिंतामणि नामक ग्रन्थ का उसे पता ही न लगा। यहां तक कि राजस्थान के सब से बड़े और अत्यन्त महत्त्व के राजस्थानी ऐतिहासिक ग्रन्थ 'मुंहता नैणसी की ख्यात' तक की उसे जानकारी नहीं मिली। उसको संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का परिचय नहीं था। प्राचीन लिपि के पढ़ने का वैसा कोई अभ्यास भी वह नहीं कर सका। प्राचीन ब्राह्मी लिपि, जिसमें अशोक के धर्मलेख अंकित हुए हैं, और जिस लिपि में लिखे गये सैकड़ों ही शिलालेख अब उपलब्ध हो गये हैं उसके अक्षरों का तब तक कोई ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका था। मौर्य उत्तरकालीन, कुषाण, क्षत्रप, गुप्त आदि राजाओं के समय के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के आदि जो बाद में हजारों की संख्या में उपलब्ध हुए हैं, उनमें से किसी की भी कल्पना टॉड को नहीं हो पाई थी। उसकी नज़र में कहीं कोई ऐसा लेख या सिक्का पा जाता था तो उसका मर्म जानने के लिए वह बहत प्रयत्न करता रहता, पर तब तक उन प्राचीन लिपियों के अक्षरों को पहचानो नहीं गया था।
संस्कृतादि प्राचीन भाषा साहित्य तथा पुराने लिखे गये ग्रन्थों को पढ़ने व समझने के लिए उसने मांडलगढ (मेवाड़) के रहने वाले एक जैन यति ज्ञानचन्दजी को अपने पास रख लिया था। यतिजी संस्कृत, प्राकृत, प्राचीन राजस्थानी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे और ५००-६०० वर्ष जितने पुराने लिखे ग्रन्थों को तथा उस समय तक के
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