Book Title: Panchsutra Stabak
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 13
________________ डिसेम्बर २००७ अंगारकर्मादिरूप समारंभ न चिंतवीयइं, सामान्य परपीडा प्रति न भावीयें, कोय चीजने अणमलवें दीणता प्रति न पांमीय, कोय इष्ट चीजनें मिलवें हर्ष प्रति न सेवीय, "अतत्त्वाध्यवसायो वितथाभिनिवेशः" वितथाभिनिवेश प्रतिइं किंतु वचनानुसारई मननो प्रवर्तावनार थाय इम, इम वचनप्रवर्तक । न भासिज्जा अलियं न फरुसं न पेसुन्नं नाणिबद्धं हिअ मिअभासगे सिआ। न भाखीयई अभ्याख्यानादिकनें, न भाखीयइ निष्टुरवुर (छुर?), न भाखीयै पैशून्य, न भाखीयइ कथादि-अनिबद्ध, प्रतिसूत्रनीतिइं हितकर परिमित भाषानो भाषक थाय । .. एवं न हिसिज्जा भूआणि, न गिण्हिज्ज अदत्तं, न निरिक्खिज्ज परदारं, न कुज्जा अणत्थदंडं, सुहकायजोगे सिआ । इंम न हिंसीइं पृथ्वियादिभूतोनई, नही ग्रहियें थोडं पण अदत्त प्रतिइं, नही रागथी परदार प्रति, न करीयई अपध्यानाचरितादि अनर्थदंड प्रति, किंतु छ काययोग आगमनीतिइं शुभ जेहनौ एहवौ थाय । . तहा लाहोचिअदाणे लाहोचिअभोगे लाहोचिअपरिवारे लाहोचिअ निहिकरे सिआ । तिम अष्टभागाद्यपेक्षा लाभोचितदानकर्ता, अष्टभागाद्यपेक्षायें लाभनें उचितभोगभोगी, चतुर्भागाद्यपेक्षायें लाभनें उचित परिवारधारक, चतुर्भागाद्यपेक्षायें लाभ-निधिनो कारक थाय । असंतावगे परिवारस्स, गुणकरे जहासत्ति, अणुकंपापरे, निम्ममे भावेण । एवं खु तप्पालणे वि धम्मो जहन्नपालणेत्ति । सब्वे जीवा पुढो पुढो, ममत्तं बंधकारणं । तथा असंतापक:-परिजननें परिवारनें असंतापक थाय, शुभ प्रणिधानई करी यथाशक्ति प्रति फलनिरपेक्षपणे करी, अनुकंपातत्पर छे, भवस्थितिने आलोचवई, ए० इम जीवोपकार थाय माटें अन्य पालननें विषं जिम धर्म तिम तत्पालनने विषं जीवा(व)विशेषे करी अन्यपालनें जिम धर्म तिम निज, सर्वजीव पृथक् छई, ममत्वं ते बंधन कारण छई - "संसारांबुनिधौ सत्त्वाः , कर्मोर्मिपरिघटि(ट्टि)ता: । संयुज्यंते वियुज्यंते तत्र कः कस्य बांधवः ? || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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