Book Title: Panchsutra Stabak
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपञ्चसूत्र-स्तबक सं. विजयशीलचन्द्रसूरि पञ्चसूत्र ए जैन साधको माटे अमृतऔषधतुल्य ग्रन्थ छे. वर्तमान जैन संघमां सर्वाधिक वंचातो-छपातो ग्रन्थ आ पञ्चसूत्र छे, एम कही शकाय. मूळे श्रीमद् हरिभद्रसूरिकृत आ ग्रन्थ कालक्रमे चिरन्तनाचार्यकृत अने ते रीते अज्ञातकर्तृक गणायो छे. तेनां कारण कयां होय ते तो अकळ छे, परन्तु आ बाबत घणी विलक्षण गणाय तेमां शंका नहि. बाह्यान्तर अढळक प्रमाणोना आधारे आ मूळ रचना पण हरिभद्रसूरि महाराजनी ज होवानुं सिद्ध थई शके तेम छे. (जुओ अनुसन्धान-११(ई. १९९८)मा 'पञ्चसूत्रना कर्ता कोण, चिरन्तनाचार्य के आ.हरिभद्र ?' पृ. ७१) आ बहुमूल्य ग्रन्थ उपर प्रमाणमां, बहु ओछा विद्वज्जनोए पोतानी कलम चलावी छे. तेथी आना उपरनी विवेचनात्मक कोई पण नानी-मोटी कृति मळे तो ते स्पृहणीय बनी रहे तेम छे. श्रीमुनिसुन्दरसूरिकृत अवचूरि 'अनुसन्धान-११'मां मुद्रित थई छे. ते पछी आ ‘पञ्चसूत्र-स्तबक' अत्रे आजे प्रस्तुत थाय छे. आवी बीजी कृतिओ पण अन्यान्य भण्डारोमां सचवाई हशे प्रस्तुत स्तबकनी प्रति कच्छ-कोडायना ज्ञानभण्डारनी प्रति छे. स्तबक लखनार त्यांना ज एक श्रावक छे : वेलजी भारमल. १९-२० मा शतकना अरसामां कच्छमां अनेक श्रावक-श्राविकाओ थयां, जे विद्वान्, शास्त्रोनां मर्मज्ञ अने तत्त्वपिपासु तेमज अध्यात्मसाधक हतां. ओमनां ज्ञान तथा चिन्तन विषे आ प्रकारनी हस्तप्रतिओ तेमज मुद्रित ग्रन्थादि द्वारा जाणकारी सांपडे त्यारे भारे अचंबो तो थाय ज; अहोभाव पण ऊपजे छे. वेलजी भारमल आ कक्षाना ज एक श्रावक हशे,तेवू अनुमान तेमणे लखेला आ स्तबकना वांचन थकी करी शकाय छे. पांचेय सूत्रना लगभग एकेएक शब्दने तेमणे सुपेरे खोल्यो छे. खास करीने पांचमा सूत्रमा आवता गहन दार्शनिक पदार्थोनुं बयान करतां सूत्रात्मक वाक्योने समजाववानो तेमनो यत्न प्रशंसार्ह अने विस्मयप्रेरक बने तेवो मजानो छे. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ २३ पत्रोनी आ प्रति वि.सं. १९५८मां ज लखायेली छे, एटले आ लेखक श्रावकनो सत्ताकाळ २०मी शताब्दीनो ज छे, ते आपमेळे सिद्ध थाय छे. कोडाय गाम ए कच्छना काशी के लघुकाशी तरीके ओळखातुं. त्यांना श्रावकोनी विद्वत्ताने लीधे ते क्षेत्रनी आवी ख्याति थई हती. त्यांना ग्रन्थभण्डारो पण खूब वखणाता. अमे त्रणेक वर्ष ऊपर विहार करतां त्यां गया त्यारे त्यांना श्रीकोडाय जैन महाजन भण्डारनी आ प्रति (पो. ६१, क्र. ३१८) जोवामां आवतां तेनी झेरोक्स नकल करावेली. तेना ऊपरथी आनी प्रतिलिपि साध्वीश्री दीप्तिप्रज्ञाश्रीजीए करी आपी हती, तेना आधारे आ सम्पादन थयेल छे. __ लेखक संस्कृत-प्राकृतना सारा जाणकार हशे तेवं तेमणे ठेर ठेर टांकेला टीका-पाठो तथा श्लोको-गाथाओ जोतां समजाय छे. अर्थघटन करवामां पण तेमणे खास परिश्रम करवो पडतो होय तेम नथी जणातुं. अर्थ तेमने सहजपणे स्फुरतां होय तेवू लागे. नजीकना समयनी ज भाषा होई भाषाकीय विशिष्ट प्रयोगो खास जोवा मळता नथी. हा, कच्छी लढण जरूर क्यांक जोवा मळे. सूत्रगत पाठोमां केटलेक ठेकाणे मूळ कृति करतां भिन्नता जोवा मळे छे. लागे छे के आ सूत्रनो नित्यपाठ करता करतां भणेला माणसनी जीभे जे सहज जुदा शब्द के पाठ चडी जाय, तेनी आमां असर हशे. अथवा तेमनी समक्ष पञ्चसूत्रनी जे प्रति हशे तेमां आ प्रकारना पाठ होवा जोईए. केटलांक स्थानो आपणे जोईए : सूत्रः सुकडाणासेवणं स्तबकः सुकडाणुसेवणं (१) अथवा सकडासेवणं सूत्रः हेऊ सयलकल्लाणाणं स्तबकः हेऊ सव्वकल्लाणाणं (१) सूत्र: लोकविरुद्धे अणुकंपापरे स्तबकः लोगविरुद्धं करुणापर० (२) सूत्रः असुहाणुबंधमञ्चत्थं स्तबकः असुहाणुबंधमच्चंतं (२) सूत्रः न इओ सुंदरतरमन्नं स्तबक: न इओ सुंदरमन्नं (२) सूत्रः एवं न भासिज्जा स्तबकः न भासिज्जा (२) सूत्र: ०गहणेणं विवागदारुणं च त्ति । एव० स्तबकः गहणेणं । एव० (२) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) डिसेम्बर २००७ सूत्रः तप्पडिवत्तिविग्यो स्तबकः तप्पडिवत्तिविग्धं (३) सूत्रः सुविणे व सव्वमाउलं ति । स्तबक: सुविणुव्व सव्वमालमालंति । अलमत्थ ता अलमित्थ (३) सूत्रः संभवंतोसहे स्तबकः संभवे ओसहे (३) सूत्र: तस्संपायणे स्तबकः तस्स संपाडणे (३) सूत्र: पहाणं बुहाणं परमत्थओ स्तबकः पहाणं परमत्थओ - (३) सूत्र: सुपुरिसोचिअमेअं स्तबकः पुरिसोचिअमेअं (३) सूत्रः सुगुरुसमीवे, पूजिऊण स्तबकः गुरुसमीवे, पूइत्ता (३) सूत्रः समहिवासए विसुद्धजोगे स्तबकः समहिवासए विसुज्झमाणे (३) विसुज्झमाणे सूत्र: न इओ हिअं तत्तं स्तबकः न इउ हिअतत्तं सूत्रः निरुद्धपमायचारं स्तबक. निरुद्धपमायायारे (४) सूत्रः तत्तसंवेयणाओ कुसलसिद्धीए स्तबकः तस्स संवेयणाओ कुसलासयवुड्डीओ (४) सूत्रः अरूविणी सत्ता स्तबकः अरूवी सत्ता (५) सूत्र: ०णंतगुणं खु तं स्तबक: ०णंतगुणं तं तु (५) सूत्र: अविसेसो बद्धमुक्काणं स्तबकः अविसेसो अबंधमुक्काणं (५) बीजी एक विलक्षणता ए जोवा मळे छे के मूळ कृतिमां ज्या ज्यां प्रथमा-एकवचनान्त पदोमां 'ए'कारान्त-श्रुति छ : दा.त. धम्मे, जीवे, वगेरे; त्यां आ स्तबकप्रतिगत पाठमां 'ओ'कारान्त-श्रुति जोवा मळे छ : दा.त. धम्मो, जीवो, इत्यादि. कोडायना ज्ञानभण्डारना कार्यवाहकोनो, प्रतिनी नकल करावी आपवा बदल आभार मानुं छु. पञ्चसूत्र स्तबक सहित ॥ ए६०॥ नमो वीयरागाणं सव्वण्णूणं देविंदपूइआणं जहडिअवत्थुवाईणं तेलुक्कगुरूणं अरहताणं भगवंताणं ।। नमो वीतरागेभ्यः सर्वज्ञेभ्यः देवेन्द्रपूजितेभ्यः यथास्थितवस्तुवादिभ्यः Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ त्रैलोक्यगुरुभ्यः । नमस्कार हो वीतरागोनइं सर्वज्ञोनइं देविंद्रपूजितोनई यथास्थित वस्तुना कहनारोनै त्रैलोक्यगुरुओनई अरिहंतोनें भगवंतोनइं । जे एवमाइक्खंतिजे भगवंत इम कहें छइं इह खलु अणाइजीवे अणाइजीवस्स भवे अणाइकम्मसंजोगनिवत्तिए दुक्खरूवे दुक्खफले दुक्खाणुबंधे । इहां निश्चयें अनादिजीव छ । अनादि जीवनें भव छइं । ते भव अनादिकर्मसंयोगें नीपजाव्यौ छई । ए भव दुक्खरूप छई । दुख एहनुं फल छई। एथी दुक्खनो ए(अ)नुबंध छई । एअस्स णं वुच्छित्ती सुद्धधम्माओ । सुद्धधम्मसंपत्ति(त्ती) पावकम्मविगमाओ । पावकम्मविगमो तहभवत्ताइभावाओ । ए भवनौ विच्छेद शुद्धधर्म थकी थाय । सुद्ध धर्मनी प्राप्ति पापकर्मना विनाशथी नीप® । पापकर्मनो विनाश तथाभव्यत्वादिभावथी थाइं । तस्स .पुण विवागसाहणाणितेहनां वली विपाकसाधन अनेक देखाडई छई । चउसरणगमणं, दुक्कडगरिहा, सुकडाणुसेवणं । च्यारनई सरणे जर्बु, दुःकृतनी गर्दा, सुकृत, सेवईं सारी परें । अउ कायव्वमिणं होउकामेणं सया सुप्पणिहाणं । ए कारणं करवू ए आत्मरूपें थवा इंछई तेणइं सदैव सुप्रसि(णि)धान । भुज्जो भुज्जो संकिलेसे तिकालमसंकिलेसे । वारंवार संक्लेशनै विर्षे त्रिण काल असंक्लेशनैं विर्षे । जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलोगनाहा अणुत्तर र )पुण( ण्ण)संभारा खीणरागदोसमोहा अचिंतचिंतामणी भवजलहिपोआ एगंतसरणा अरहंता सरणं । जिहां सूधी जीव तिहां लगें मुझनें भगवंत परमत्रिलोकनाथ, अनुत्तर पुण्यसमूह छै जेहानें, क्षय गया , राग-द्वेष-मोह जेहोनें, अचिंत्यचिंतामणी, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ संसारसमुद्रथी तारिवाने जिहाज, एकांतशरण योग्य अरहंत शरण हो । तहा पहीणजरमरणा अवेअकम्मकलंका पणढ़वाबाहा केवलनाणदसणा सिद्धिपुरनिवासी निरुवमसुहसंगया सव्वहा कय किज्जा( च्चा)सिद्धा सरणं । तिम प्रक्षीण छै जरामरण जेहोनई, गयो , कर्मकलंक जेहोनें, प्रगट (प्रणष्ट) छै व्याबाधा जेहोनई, केवलज्ञान केवलदर्शन जेहोनइं, मोक्षपुरना वासी, निरुपम सुखनइं पाम्या छै, सर्वथा कृतकृत्य थया, एहवा सिद्ध शरण तहा पसंतगंभीरासया सावज्जजोगविरया पंचविहायारजाणगा परोवयारनिरया पउमाइनिर्दसणा झाणझा ज्झ )यणसंगया विसुज्झमाण भावा साहू सरणं । तथा प्रशांत गंभीर छ आशय जेहोनो एहवा, सावध योगथी जे विरम्या एहवा, ज्ञानाचारादि पंचविधाआचारनां जांणणहार एहवा, परोपकार करवामां उद्यमी एहवा, संसारमा वसतां पद्मादिकनुं दृष्टांत छै जेहोने एहवा, ध्यांने अध्ययनैं संयुक्त एहवा, विशुध्यमान छै परिणाम जेहोनौ एहवा साधु शरणं । तहा सुराखुरमणुअपूइओ मोहतिमिरंसुमाली रागदोसविसपरममंतो हेऊ सव्वकल्लाणाणं कम्मावणविहावसू साहगो सिद्धभावस्स केवलीपन(न)त्तो धम्मो जावज्जीवं मे भगवं सरणं । तिम सुरई असुरई मनुष्यई पूज्यौ,मोहरूप अंधकार फेडवा सूर्य, रागद्वेषरूप विषने वारवा परममंत्र, कारण समस्त कल्याणो, कर्मरूप वननें विषे अग्नि, साधक सिद्धभावनो एहवो, केवलीनो प्ररूप्यो धर्म जहां जीव तिहां सूधी मुझने भगवंत शरण हो । सरणमुवगओ अ एएसिं गरिहामि दुक्कडं । शरणे पाम्यो हुं एहोनइं, गरहु छु दुकृत प्रतें । जपणं अरहंतेसु वा सिद्धेसु वा आयरिएसु वा उझ्झाएसु वा साहूसु वा साहुणीसु वा अन्नेसु वा धम्मट्ठाणेसु माणणिज्जेसु पूअणिज्जेसु । जे अरहंतने विधे, सिद्धोनें विर्षे, आचार्योनई विर्षे, उपाध्यायोने विर्षे, साधुओनें विषे, साध्वीओनें विर्षे, बीजाय वा धर्मना ठेकाणाओनें विषं, मानवा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ योग्योने विषे, पूजवा योग्योने विषैः । तहा माइसु वा पिईसु वा बंधूसु वा मित्ति(त्ते )सु वा उवयारिसु वा ओहेण वा जीवेसु मग्गट्ठिएसु अमग्गट्ठिएसु मग्गसाहणेसु अमग्गसाहणेसु । तिम माताओने विषे, पिताओने विर्षे, बंधुओने विर्षे, मित्रोनें विर्षे, उपकारी जीवोनें सामान्य विषई, अथवा जीवोनें विषं, मार्गे रह्या जीवोनें विर्षे, अमार्गे प्रवर्त्तता जीवोने विर्षे, मार्गना साधन रत्नत्रयादिक ते साधननें विर्षे, अमार्ग अज्ञानवर्त्यादिक ते अमार्ग-साधनोनें विर्षे ।। जं किंचि वितहमायरियं अणायरिअव्वं अणित्थि( च्छि)अव्वं पावं पावाणुबंधि सुहमं वा बायरं वा मणेण वा वायाए वा काएण वा कयं वा कारावियं वा अणुमोइअं वा रागेण वा दोसेण वा मोहेण वा इत्थंथा( वा) जम्मे जम्मंतरेसु वा गरहिअमेयं दुक्कडमेयं उज्झिअव्वमेयं । विआणि मए कल्लाणमित्तगुरुभगवंतवयणाओ । एवमेअंति रोइअं सद्धाए । अरहंतसिद्धसमक्खं गरहामि अहमिणं । दुक्कडमेयं उज्झिअव्वमेअं। इच्छ मिच्छामि दुक्कडं मिच्छामि दुक्कडं मिच्छामि दुक्कडं । जे काइ असत्य-विपरीत आचर्यु अणआचरवाया(यो)ग्यं, इच्छामां लाववा पाप-अयोग्य, पापनो अनुबंध जेहथी थाय एहवउं, सूक्ष्म अथवा बादर अथवा मनोयोगें अथवा वचनयोगे अथवा काययोगें अथवा कर्यु अथवा कराव्यु अथवा अनुमोदिउं, अथवा रागें करीने वा द्वेषं करीने मोहें करीने वा, इह जन्मने विर्षे वा, जन्मने विर्षे, जन्मांतरोनें विषं वा, गरहागोचर करवा योग्य ए दुःकृत छ, ए त्यजवायोग्य छे । ए विर्षे जाण्युं में कल्याणमित्र एहवा श्रीगुरुभगवंत तेहना वचन थकी । इमज ए भाव , रुचिगोचर श्रद्धायें करीनई । अरिहंत सिद्ध भगवंतोने समक्ष । सर्व अरिहंत सिद्ध साक्षी छै जिहां ए रीतें गर्हाविषय करुं धुं हुं एहनइं । दुःकृत छे ए पंडितवीर्यनी प्रबल स्फुरणायें, ए स(त्य)जवा योग्य छै । इहां मिच्छा मि दुःकडं मिथ्या माहरुं दुःकृत हो मुंझनइं। होउ मे एसा सुपत्थणा होउ मे इत्थव( ब )हुमाणो होउ मे इओ मुक्खबीअंति । होउ मे एसा सम्म गरिहा होउ मे अकरणनियमो बहुमयं ममएयंति । इच्छामि अणुसढेि अरहंताणं भगवंताणं गुरूणं कल्याणमित्ताणं Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ ति । होउ मे एएहि संजोगो । पत्तेसु एएसु अहं सेवारिहे सिया आणारिहे सिया पडिवत्तिजुत्ते सिआ निरइआरपारगे सिआ । ए हवणां वर्ण्यमान सुष्टुं प्रार्थना हो मुझनें, ए क्रियानें विषें बहुमान हो मुझनें, ए भाव मोक्षनुं बीज हो मुझनें, ए सम्यग् - सारी गर्हा हो मुझनें, अकरणनो नियम बहुमत छें मुझनें ए तत्त्व इति । इच्छं छं अनुशिष्टि प्रति अरहंतोनी भगवंतोनी, गुरुओनी कल्याणमित्र साधक समूहनें । ए भावें माहरई ए अर्हतादिको साधे संयोग पुण्ययोगें पामें छतें ए अरिहंतादिक[नी हुं सेवामां प्रवर्त्तवा योग्य थाओ, अरिहंतादिकोनी आज्ञानें योग्य थाओ, प्रतिपत्ति- सेवारूप तेणें योग्य थाओ, निरतिचारपारगामी धर्ममां थाओ । ७ संविग्गो जहासत्तीए सेवेमि सुकडं । अणुमोएमि सव्वेसिं अरहंताणं अणुद्वाणं सव्वेसिं सिद्धाणं सिद्धभावं सव्वेसि आयरिआणं आयारं सव्वेसि उवज्झायाणं सुत्तप्पयाणं सव्वेसि साहूणं साहुकिरिअं सव्वेसिं सावगाणं मुक्खसाहृणजोगे सव्वेसि देवाणं सव्वेसिं जीवाणं होउकामाणं कल्लाणासयाणं मग्गसाहणजोगे । संविग्न एहवौ यथाशक्ति सेवं सुकृत प्रति । अनुमोदुं समस्त अरिहंतोनुं अनुष्टान प्रति, सर्वसिद्धा (द्धो ) ना सिद्धभाव प्रतिं, समस्त आचार्योना आचार प्रति, समस्त उपाध्यायोना सूत्रप्रदांन प्रति, समस्त साधुओनी साधु एहवी क्रिया प्रति । समस्त श्रावकोना मोक्षसाधन योगोनें अनुमोदुं छु, सर्व देवोना, समस्त जीवोनां, सिद्धभाव थवानो काम छें जेहोंनें एहवा, कल्याणरूप छें परिणाम जेहोनां एहवा जीवोनां, मोक्षमार्गना साधनार एहवा ज्ञानादि योग प्रति । होउ मे एसा अणुमोअणा सम्मं विहिपुव्विआ सम्मं सुद्धासया सम्मं पडिवत्तिरूवा सम्मं निरईयारा परमगुणजुत्तअरिहंताइसामत्थओ | थाओ मुझनें ए अनुमोदना सम्यग् विधिपूर्विका, ए अनुमोदना सम्यक्सारी जे अनुमोदना करतां शुद्ध छे आशय जेहमां एहवी अनुमोदना हो, सम्यक् समीचीन प्रतिपत्तिरूप प्रतिपत्तिभावनी अनुकूलतायें अंगीकरणरूप सम्यक्- निरतिचारा अतिचार रहित एहवी अनुमोदना हो । उत्कृष्ट गुण सहित अरिहंतादिक गुणनिधान उत्तम हेतु, तेहोना सामर्थ्य थकी । अर्चितसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतो वीअरागा सव्वणू परमकल्लाणा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ परमकल्लाणहेओ( 3 )सत्ताणं । अचिंत्य शक्ति सहित ते अरिहंतादिक गुणी छई ज्ञानादिक गुणवंत रागरहित सर्वज्ञ परमकल्याणप्राप्त एहवा छई । परमकल्याणना कारण जीवोनें ते ते (हेते ?) । मूढे अह्यि (अम्हि) पावे अणाइमोहवासिए अणभिन्ने भावओ हिआहिआणं अभिन्ने सिया अहिअनिवित्ते सिआ हियपवित्ते सिआ आराहगे सिआ उचिअपडिवत्ति(त्ती )ए सव्वसत्ताणं सहिअंति इच्छामि सुक्कडं इच्छामि सुक्कडं इच्छामि सुक्कडं । ___ मूर्ख अमे पापवंत छु । ए विशिष्ट पुरुषोनी [आगे?] अनादि मोहें करी वासित छु, अनभिज्ञ डुं परमार्थथी हिता हित] प्रतिपत्ति करवाने,हितना अभिज्ञ-जांण थाऊं, अहितथी निवृत्त थाऊं, हितमा प्रवृत्त थाऊं,आराधक थाऊं, उचित-प्रतिपत्तिई करीनइं सर्व जीव संबंधिनइं स्वहित इच्छु छु सुकृत प्रति । वणवार ए पदनो पाठ (स्वहित इच्छु छु सुकृत प्रति स्वहित इच्छं छु सुकृत प्रति) । ___एवमेयं सम्मं पढमाणस्स सुणमाणस्स अणुप्पेहमाणस्स सिढिलीभवंति परिहायंति खिज्जंति असुहकम्माणुबंधा । निरणुबंधे वाऽसुहकम्मे भग्गसामत्थे सुहपरिणामेणं, कडगबद्धे विव विसे, अप्पफले सिआ सुहावणिज्जे सिआ अपुणभावे सिआ । ए रीतें ए सम्यक् संवेगसार भणवा(ता)जीवनई, अन्य समीपथी सांभलतां जीवनै,अर्थानुस्मरण द्वारायें अनुप्रेक्षाने करतो एहवाने, मंदविपाकतायें शिथिल थाय, पुद्गलने ओसरवें परिहानि थाय, आशयविशेषाभ्यासद्वाराई मूलथी ज क्षय पामई, भावरूप अथवा कर्मविशेषरूप असुभ कर्मना अनुबंध क्षय पामतां शेष रह्यं असुभकर्म ते अनुबंधरहित थाय, भग्न छे सामर्थ्य जेहनुं विपाक प्रवाहने आश्रईनें एहवं अशुभकर्म थाय । अनंतरोदित सूत्रथी उपने शुभ परिणामें करीने कटकबद्ध जिम विष मंत्रि-सामर्थ्य (मंत्रसामर्थ्य) अल्पफल थाय तिम अल्प फल क० अल्पविपाक थाय, सुखें अपनय करवा योग्य अशुभ कर्म थाय, अपुनर्भाव अशुभकर्म थाय । तहा आसगलिज्जंति परिपोसिज्जंति निम्मविज्जति सुहकम्माणु Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ बंधा । साणुबंधं च सुहकम्मं पगिट्ठ पगिट्ठभावज्जियं नियमफलयं सुपउत्ते वि व महागए सुहफले सिआ सुहपवत्तगे सिआ परमसुहसाहगे सिआ । तथा आसकलीक्रियते-आक्षिपिइं समीप थयें, परिपोष्यंते-परिपोषियें भावनें उपचयें करी, निर्माप्यंते-परिसमाप्ति पमाडीयें शुभकर्मना अनुबंधकुशलकर्मना अनुबंध ए भावः । सानुबंधं च पुनः शुभकर्म आत्यंतिकानुबंधापेक्ष अनुबंधसहित शुभकर्म प्रकृष्ट क० प्रधान प्रकृष्ट भावाजितं क० शुभभावें उपायुं नियमफलदं क० प्रकृष्टत्वे करीने नियमें फल देणहार छै । सुप्रयुक्त इव महागदः एकांतकल्याणः सुखफलं कसुख छै फल जेहनुं एहवो ते शुभकर्म थाय । अनुबंधई शुभर्नु प्रवर्तक थाय परम सुखनु साधक ते कर्म पारंपर्ये निर्वाण सुख, साधक छ । अओ अपडिबंधमेअं असुहभावनिरोहेणं सुहभावबीयंति सुप्पणिहाणं सम्मं पढिअव्वं सम्मं सोअव्वं अणुप्पेहिअव्वंति । यत एवं अतो क० ए कारण माटें प्रतिबंधरहित, निदानरहित, अशुभ भावना अनुबंधनें निरोधे करीनई शुभभावनुं बीज इति कृत्वा, इंम चित्तमां जाणीनें, ए सूत्र सुप्रणिधान कहतां शुभप्रणिधानें सम्यक् प्रशांत(ता)त्माई पठितव्यं कहतां भणq, सम्यक् प्रशांतात्माइं अन्वाख्यानविधि सांभलवू, अनुप्रेक्षितव्यं कहतां अनुप्रेक्षाविषये करवू परिभावनीयमित्यर्थः । नमो नमिअनमिआणं परमगुरुविर वी अरागाणं नमो सेसनमुक्कारारिहाणं । जयओ(उ) सव्वण्णुसासणं । परमसंबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा सुहिणो भवंतु जीवा सुहिणो भवंतु जीवा । नमस्कार हो देवऋषिओयें नमित क. वंदित एहवाओ ,परमगुरु एहवा वीतरागोनें, नमस्कार हो शेष आचार्यादिक गुणाधिक नमस्कार योग्य महात्माओनें । कुतीर्थनें अपोहें जयवंत वत्र्तो सर्वज्ञोनु शासन । वरबोधिलाभरूप परम संबोधियें मिथ्यात्वदोषनें नाशें प्रांणी सुखिआ थाओ प्रांणी सुखिआ थाओ प्रांणी सुखिआ थाओ। इति पावपडिघायगुणबीजाहाणसुत्तं १ ॥ इति पापप्रतिघात-गुणबीजाधान नामे प्रथम सूत्र १ ।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ जायाए धम्मगुणपडिवत्तिसद्धाए भाविज्जा एएसिं सरूपं( वं) पयइसुंदरत्तं अणुग्ग( गा)मित्तं पयो( रो )वयारित्तं परमत्थहेउत्तं तहा दुरणुचरत्तं भंगे दारुणत्तं महामोहजणगत्तं भूओ दुल्लहत्तंति । एवं जहासत्ति(त्ती )ए उचियविहाणेणं अच्चंतभावसारं पडिवज्जिज्जा ।। धर्मगुण-प्रतिपत्ति श्रद्धा, तार पछी तथाविध कर्म-क्षयोपशमें करी भावथी भावीयें ए धर्मगुणोनुं स्वरूप, जीव संक्लेश-विशुद्धियें, प्रकृतई सुंदरपणुं, भवांतर वासनानुगमें करी अनुगामिपणुं,पीडादि निवृत्तियें परोपकारिपणुं, परम्परायें मोक्षसाधनपणा माटें परमार्थ हेतुपणुं, सदैवानस्या(भ्या)स माटें दुखें आचरवामां आवे ते दुरनुचर दुरनुचरभाव ते दुरचरपणुं, भगवंतनी आज्ञाना खंडवाथी भंग थई दारुणपा(प)j, धर्मदूषकपणे करी महामोहजनन शक्तिमंतपणुं,भूयो दुर्लभत्वं क० विपक्षानुबंधना जोरथी पुनःप्राप्ति-दुर्लभपणुं, एवं-उक्त प्रकारे शक्तिनें अनुरूप, उचित विधानें-शास्त्रोक्तविधियें हानि-आधिक्य परिहरी, अत्यंतभावें सार-मोटें प्रणिधानइं बलें पडिवजीयें धर्मगुणोनें, राभसिकवृत्तिये नही वर्जीजीयें, राभसिक प्रवृत्तिनुं विपाकें दारुणपणुं छ, माटें धर्मगुणमां प्रवृत्ति उपयोगयुक्त ज हीनता अधिकता बें दोष वर्जीने करवी ।। . . तं जहा थूलगपाणाइवायविरमणं थूलगमुसावायविरमणं थूलगअदत्तादाणविरमणं थूलगमेहुणविरमणं थूलगपरिग्गहवेरमणमिच्चाइ पडिवज्जिऊण पालणे जइज्जा । ते जिम-स्थूल प्राणातिपातनुं विरमण, स्थूल मृषावादनुं विरमण, स्थूल अदत्तादान, विरमण,स्थूल परिग्रह (मैथुन), विरमण, स्थूल परिग्रहनुं विरमण इत्यादि; आदि शब्दथी दिग्भू(व्र)तादि उत्तरगुण ग्रहीयें, अंगीकार करीनें पालवाने विषे उद्यम करीयें । प्रथम उपन्यास प्राणातिपात विरमणादिकनो ते प्राप्ति एहोनी इंम ज छ । सयाणागाहगे सिआ सयाणाभावगे सिआ सयाणापरितंते सिआ। आणा हि मोहविसपरमर्मतो, जलं रोसा( दोसाइ जलणस्स, कम्मवाहीतिगिच्छासत्थं, कप्पपायवो सिवफलस्स । अध्ययनश्रवणे करी सदा आज्ञानो ग्रहनार हुं थाउं, अनुप्रेक्षाथी साथें Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ सदा आज्ञानो भावक थाउं, अनुष्टाननें आश्रयी सदा आज्ञा परतंत्र थाउं, आज्ञाजिनवचननां (वचन) मोह विषनो परममंत्र छें, मोहविषनुं अपहारें करी जल छई द्वेषादि ज्वलननुं - द्वेषादि ज्वलननें शमाववें करी, कर्मरूप व्याधि तेहनुं चिकित्साशास्त्र छें - कर्मव्याधिक्षयना कारणपणा माटें, कल्पवृक्ष छें शिवरूप फलनो अवंध्यपणें साधकपणा माटें । वज्जिज्जा अधम्ममित्तजोगं, चिंतिज्जा इ ( अ ) भिणवपाविए गुणे, अणाइभवसंगए अ अगुणे, उदयां (ग्ग ) सहकारित्तं अधम्ममित्ताणं, उभयलोगगरहिअतं, असुहजोगपरंपरं च । ११ वजयई अधर्ममित्रयोगं - अकल्याण मित्रसंबंधने, चितवीयें प्राणातिपात विरमणादिक अभिनव जे पाम्या गुण ते गुणनई, सदैव अविरतपणें अनादि भवसंगत जे अवगुण प्राणातिपातादिक तेहुंनें, च पुनरर्थे, उदग्र सहकारिपणुं चितवीयें अवगुणनी वृद्धि करवामां तीव्र सहायकारिपणुं अधर्म्ममित्रोनुंअकल्याणमित्रोनुं चितवीयें, तेंहुना पापनी अनुमति इहलोकगर्हितपणुं परलोकगर्हितपणं चितवीयें, ए शेष अशुभ योग परम्पराने अकुशलानुबंधथी वधें ते अशुभयोगपरम्परानें चितवीयें । परिहरिज्जा सम्मं लोगविरुद्धं करुणापरजणाणं, न ख्रिसाविज्ज धम्मं, संकिलेसो खु एसा, परमबोहिबीअं अबोहिफलमप्पणोत्ति परिहरीयें सम्यग् - सुभ परिणामें लोकविरुद्ध प्रति तदशुभाध्यसायादि निबंधनानि लोकविरुद्धानि परिहननें अधर्म ए भावनायें, लोकोपें धर्मनई न खिसावीयै न निंदावीयै-न गर्हावीयें, अशुभ भावपणा माटें, ए धर्मनी खिसा ते संक्लेश छई, परं - उत्कृष्टुं अबोधिबीज छई अबोधि फल थाय आत्मानेंपोतानें पण अबोधिकारण जननें थाय ते कारणें । एवमालोएज्जा- न खलु इत्तो परो अणत्थो, अंधत्तमेयं संसाराडवीए, जणगमणिडवायाणं, अइदारुणं सरूवेणं, असुहाणुबंधमच्चंतं । इम आलोइइ सूत्रानुसारई नथी निश्चयें ए अबोधि फलथी बीजो अनर्थ, तत्कारणभावाद्वा लोकविरुद्धत्वादिति, तद् दर्शननें अभावें अंधपणुं छे ए संसार अटवीनें विषई उपजावणहारु, अनिष्ट - आपातनुं छई - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ नरकाद्युपपातकारणपणई, संक्लेशप्रधानपणा माटें अति तीव्र स्वरूपें अशुभनो जेथी थाय एहवऊ परम्परायें ऊन-घातकपणे अत्यंत, तथोक्तं- "लोकः खल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥" सेविज्ज धम्ममित्ते विहाणेणं, अंधो विवाणुका ड्व)ए, वाहिए विव विज्जे, दरिदो विव ईसरे, भीउ विव महानायगे । न इउ सुंदरमन्नंति बहुमाणजुत्ते सिआ, आणाकंखी, आणापडिच्छगे, आणाअविराहगे, आणानिप्फायगेत्ती( त्ति)। सेवियइं धर्ममित्रोनें सत्प्रतिपत्त्यादि विधानें, अंध जिम खातांदिभयें अनुकर्षकर्व(र्तृ)नई, व्याधिवंत जिम रोगभयें वैद्योनइं, दरिद्र जिम स्थितिहेतु पण ईश्वरोनइ, बीहवौ जिम आश्रयणीयपणे महासौंच्य आतंकपणे, अत्यंत नथी ए धर्ममित्रनां सेवनथी सुंदर बीजुं इम बहुमान युक्त थाय, हृदयथी धर्ममित्र उपरें प्रेम ते बहुमान, आज्ञा वगर थयें आज्ञानो अभिलाषी, आज्ञाप्रदानकाले आज्ञानो प्रतिच्छक, आज्ञाना परिचय करतां-अभ्यासतां आज्ञानो अविराधक, तेहनें उचित विधाने आज्ञानो निष्पादक . पडिवण्णधम्मगुणारिहं च वट्टिज्जा गिह( हि)समुचिएसु गिहिसमायारेसु परिसुद्धाणुट्ठाणे परिसुद्धमना ण )किरिए परिसुद्धवाइकिरिए परिसुद्धकायकिरिए । प्रतिपन्न धर्मगुणने योग्य पुरिषनें वली अनुवृत्तिइं वर्तीय, गृहिने समुचित योग्य एहवा गृहिओना समाचारोनई विषई, परिशुद्ध अनुष्टानोनें शास्त्रानुसारई, परिशुद्ध मनःक्रियाओनई शास्त्रानुसारई, परिशुद्ध वचनक्रियाओनें शास्त्रानुसारइं, परिशुद्ध कायक्रियाओने शास्त्रानुसारई ।। ___ वन्जिज्जाणेगोवघायकारगं गरिहणिज्जं बहुकिलेसं आयइविराहगं समारंभं । न चिंतिज्जा परपीडं । न भाविज्जा दीणणयां (दीणयं)। न गच्छिज्जा हरिसं । न सेविज्जा वितहाभिनिवेसं । उचिअमणपवत्तगे सिआ । वर्जीयई अनेक उपघात, कारक सामान्य गर्हवा योग्य, प्रवृत्तिकालें बहुक्लेशदायक एहवं, आयतिइं विराधक, परलोक-परलोकपीडाकारका Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ अंगारकर्मादिरूप समारंभ न चिंतवीयइं, सामान्य परपीडा प्रति न भावीयें, कोय चीजने अणमलवें दीणता प्रति न पांमीय, कोय इष्ट चीजनें मिलवें हर्ष प्रति न सेवीय, "अतत्त्वाध्यवसायो वितथाभिनिवेशः" वितथाभिनिवेश प्रतिइं किंतु वचनानुसारई मननो प्रवर्तावनार थाय इम, इम वचनप्रवर्तक । न भासिज्जा अलियं न फरुसं न पेसुन्नं नाणिबद्धं हिअ मिअभासगे सिआ। न भाखीयई अभ्याख्यानादिकनें, न भाखीयइ निष्टुरवुर (छुर?), न भाखीयै पैशून्य, न भाखीयइ कथादि-अनिबद्ध, प्रतिसूत्रनीतिइं हितकर परिमित भाषानो भाषक थाय । .. एवं न हिसिज्जा भूआणि, न गिण्हिज्ज अदत्तं, न निरिक्खिज्ज परदारं, न कुज्जा अणत्थदंडं, सुहकायजोगे सिआ । इंम न हिंसीइं पृथ्वियादिभूतोनई, नही ग्रहियें थोडं पण अदत्त प्रतिइं, नही रागथी परदार प्रति, न करीयई अपध्यानाचरितादि अनर्थदंड प्रति, किंतु छ काययोग आगमनीतिइं शुभ जेहनौ एहवौ थाय । . तहा लाहोचिअदाणे लाहोचिअभोगे लाहोचिअपरिवारे लाहोचिअ निहिकरे सिआ । तिम अष्टभागाद्यपेक्षा लाभोचितदानकर्ता, अष्टभागाद्यपेक्षायें लाभनें उचितभोगभोगी, चतुर्भागाद्यपेक्षायें लाभनें उचित परिवारधारक, चतुर्भागाद्यपेक्षायें लाभ-निधिनो कारक थाय । असंतावगे परिवारस्स, गुणकरे जहासत्ति, अणुकंपापरे, निम्ममे भावेण । एवं खु तप्पालणे वि धम्मो जहन्नपालणेत्ति । सब्वे जीवा पुढो पुढो, ममत्तं बंधकारणं । तथा असंतापक:-परिजननें परिवारनें असंतापक थाय, शुभ प्रणिधानई करी यथाशक्ति प्रति फलनिरपेक्षपणे करी, अनुकंपातत्पर छे, भवस्थितिने आलोचवई, ए० इम जीवोपकार थाय माटें अन्य पालननें विषं जिम धर्म तिम तत्पालनने विषं जीवा(व)विशेषे करी अन्यपालनें जिम धर्म तिम निज, सर्वजीव पृथक् छई, ममत्वं ते बंधन कारण छई - "संसारांबुनिधौ सत्त्वाः , कर्मोर्मिपरिघटि(ट्टि)ता: । संयुज्यंते वियुज्यंते तत्र कः कस्य बांधवः ? || Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनुसन्धान ४२ तथा-अत्यावतेऽस्मिन् संसारे, भूयो जन्मनि जन्मनि । सत्त्वो नैवास्त्यसौ कश्चित् यो न बंधुरनेकधा ॥" तहा तेसु तेसु समायारेसु सइसमणा( ण्णा )गए सिआ, अमुगेऽहं, अमुगकुले, अमुगसिस्से, अमुगधम्मट्ठाणहिए, न मे तव्विराहणा, न मे त दारंभो, वुड्डी ममेअस्स, एअमित्थ सारं, एअमायभूअं, एअं हिअं । असारमन्नं सव्वं विसेसओ अविहिगहणेणं । एवमाह तिलोगबंधू परमकारुणिगे सम्म संबुद्धे भगवं अरिहंतेत्तिा एवं समालोचिअ तदविरुद्धेसु समायारेसु सम्मं वट्टिज्जा भावमंगलमेअं तन्निष्प (प्फ)त्तीए । तिम छे ते लोभरूपपणा माटें समाचारोंने विर्षे - गृहिसमुचित समाचारोंने विर्षे, स्मृतिसमन्वागत थाय-आभोगयुक्तः, अमुक देवदत्तादि नामा हुं इक्ष्वाद्यपेक्षायें अमुक कुल, धर्मथी अमुक शिष्य, तत्तदाचार्यापेक्षायेंअणुव्रताद्यपेक्षायें अमुक धर्मस्थानें हुं स्थित छु, न मुझनई धर्मस्थाननी विराधना, न हो मुझनई विराधनानो आरंभ, ए धर्मस्थाननी माहरई वृद्धि होय, एतत्ए अत्र-इहां धर्मस्थानं एतत्-ए आत्मभूत आनुगामुकपणा माटइं, एतत् सुंदर परिणामपणा माटें हितं-हितकरं । असार छई बीजुं अर्थजातादि सर्व, विशेषथी अविधिई ग्रहणे करी विपाकदारुणपणा माटई । इंम कहतो हवओ त्रिलोकबंधु, परमकरुणावंत तथाभव्यत्त्वनि जोगथी सम्यक् अनुत्तर बोधबीजथी संबुद्धे भगवान् अरिहंत इति । इम समालोचन करीने अधिकृत धर्मस्थानाविरोध एहवा जे समाचार, ते विचित्र समाचारोंने वि सम्यक् सूत्रनीतिइं वर्तीयई । वीधिइ प्रवर्तन ए भावमंगल छै, अधिकृत समाचारनें नीपजवें । तहा जागरिज्ज धम्मजागरिआए-को मम कालो ? किमेअ (स्स) उचिअं ? । असारा विसया नियमगामिणो विरसावसाणा । भीसणो मच्चू सव्वाभावकारी अविनायागमणो अणिवारणिज्जो पुणो पुणोऽणुबंधी । धम्मो एअस्स ओसहं, एगंतविसुद्धो महापुरिससेविओ सम्वहिअकारी निरइआरो परमाणंदहेऊ । तथा तिम जागीयें भावनिद्राविरहई धर्मजागरिकाई करी। किओ वयोवस्थारूप माहरो काल? स्युं मने उचित- “किमेतस्योचितं धर्माद्यनुष्ठानं' ? तुच्छ छै शब्दादि विषय, निश्चयें जनारा छै विरस , अवसान जेहुनां Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ परिणामदारुणाः । महाभयजनन मृत्यु छै सर्वना अभावनो [कर्ता]अदृस्यस्वभावपणा माटें अविज्ञात छै आगमन जेनुं एहवो, करनार छै तत्साध्यार्थक्रियाना अभाव माटई, स्वजनादिबलें अनिवारणीय छै-निवारवा योग्य न - नही ते अनिवारणीय, अनेक योनि सावें (थे) करी पुनः पुनः वारंवार अनुबंधी छइ, धम्मो कहतां धर्म व्याधि समान जे ए मृत्यु तेहनु औषध छई, एकांतविशुद्ध निवृत्ति रूप छे, महापुरष ये तीर्थकरादिक तेहुणे सेवित्त छई, सर्चने हितकारी छई, मैत्र्यादिरूपपणा माटई निरतिचार छे, यथागृहीत-परिपालनें करी परिमानंदनो हेतु छइं । _ नमो इमस्स धम्मस्स । नमो एअधम्मप्पगासगाणं । नमो एअधम्मपालगाणं। नमो एअधम्मपरूवगाणं । नमो एअधम्मपवज्जगाणं । नमस्कार हो एतस्मै-एहनें अनंतरोदितरूपधर्मनइं नमः । ए धर्मना प्रकाशक अरिहंतो नमस्कार हो । ए धर्मना पालनार यतीओनें नमस्कार हो । ए धर्मना प्ररूपक यतीओनइं नमस्कार हो । ए धर्मना पडिवजनार श्रावकादिक गुणिजीवोनइं । इच्छामि अहमिणं धम्म पडिवज्जित्तए सम्म मणवयणकायजोगेहिं । होउ ममेअं कल्लाणं परमकल्लाणाणं जिणाणमणुभावओ । इच्छु धुं हुं एहनें धर्मनई प्रतिपत्तिविषय करवानें । सम्यक्, अनेन तु संपूर्णप्रतिपत्तिरूपं प्रणिधिविशेषमाह-मनोजोग-वचनजोग-कायजोगें करीनें । हो मुझनें ए कल्याण-अधिकृत धर्मप्रतिपत्तिरूप परम छे कल्याण जेहुनें एहवा तीर्थंकरोना महिमाथी-तीर्थकरानुग्रहइ । __ सुप्पणिहाणमेवं चिंतिज्जा पुणो पुणो। ए[य] धम्मजुत्ताणमववायकारी सिआ । पहाणं मोहच्छेअणमेअं । एवं विसुज्ज( ज्झ )माणे भावणाए कम्मापगमेणं उवेइ एअस्स जुग्गयं । तहा संसारविरत्ते संविग्गो भवइ अममे अपरोवतावी विसुद्धे विसुद्धमाणभावेत्ति ।। शुभ प्रणिधांन इम चितवई वारंवार । ए धर्मयुक्त यतीओनो अवपातकारी थाउं-आज्ञाकारीति भाव । प्रधानं-श्रेष्ठः मोहनुं च्छेदन तदाज्ञाकारीपणुं, तन्मोहच्छे(द)ने योगनिषा(निश्रा?)गतयेति हृदयं । इम कुशलाभ्यासें विशुध्यमान ए धर्मनो अभ्यासी जा(जी)व उक्तरूपभावनायें कर्मनो अपगम जे नाश तद्रूप हेतुई करीने Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ उपैति-पामें छै जुग्गयं कहतां योग्यतानइं । तथा-तिम स्वकीय दोष भावनायें करी संसारथी विरक्त-संविग्न कहतां मोक्षार्थी थाय, ममतारहित, परने उपा(पता)प न करें ते अपरोपतापी-एहवौ थाय अपरोपतापी, 'विशुद्धाविशुध्यमानभावजाता:' विशुद्ध थाय, ग्रंथि प्रमुखनें भेदवई करीनई विशुध्यमान छे भाव जेहनो ते विशुध्यमानभाव शुभकंडकवृद्धिई करी थाय || साधुधम्मपरिभावणा सुत्तं ॥२॥ इति साधुधर्मपरिभावना सूत्रं ||२|| परिभाविए साहुधम्मे जहोदिअगुणे जइज्जा सम्ममेअं पडिवज्जित्तए अपरोवतावं । परोवतावो हि तप्पडिवत्तिविग्धं । अणुपाओ खु एसो । न खलु अकुसलारंभओ हिअं । 'परिभाविते सति साधुधर्मे' अनंतर सूत्रोदित विधिइं यथोदितगुण संसारथी विरक्त, संविग्न, अमम । हवै त्रीजा सूत्रनी व्याख्या कही छै । बीजा सूत्र साथै त्रीजा सूत्रनौ आ संबंध-जे अनंतर सूत्रे धर्मगुणप्रतिपत्ति-श्रद्धा थयें थकें, साधकनें जे कर्तव्य ते कर्ये थकें, साधुधर्म परिभावित थयो । हवई साधुधर्म परिभावित थय जे अकर्तव्य ते कहै छई । यत्न करी सम्यक् विधिइं ए धर्मनई पडिवजीनई परतें उपताप न उपजई तिम अपरोपतापं यथा स्यात् तथा । परोपताप जे ते निश्चयई धर्मप्रतिपत्तिना अंतराय छइं । धर्मप्रतिपत्ति करवा परोपताप ते अनुपाय छै निश्चयइं । ए परोपताप नही निश्चयइं अकुशलारंभथी आत्माने हित । ___अप्पडिबुद्धे कहिचि पडिबोहिज्जा अम्मापिअरे । उभयलोगसफलं जीविअं, समुदायकडा कम्मा समुदायफलत्ति । एवं सुही( दी हो अविओगो। अन्नहा एगरुक्खनिवासिसउणतुल्लामेअं । उद्दामो मच्चू पच्चासन्नो अ । दुल्लहं मणुअत्तं समुद्दपडिअरयणलाभतुलं । अइप्पभूआ अण्णे भवा दुक्खबहुला मोहंधयारी( रा) अकुसलाणुबंधिणो अजुग्गा सुद्धधम्मस्स । जुग्गं च एअं पोअभूअं भवसमुद्दे, जुत्तं सकज्जे निउंजिउं संवरइअच्छिदं नाणकण्णधारं तवपवणजवणं । अप्रतिबोध थकें कथंचित कर्मना विचित्रपणाथी "अकुशलारंभश्च Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ १७ धर्मप्रतिपत्तावपि परोपतापः । न चान्यस्तत्र प्रायोऽयं संभवतीति संभविपरिहारार्थमाह-अप्रतिबुद्धौ कथंचित्कर्मवैचित्र्यतः प्रतिबोधयेन्मातापितरौ । ननु(न तु)प्रायो महासत्त्वस्यैतावप्रतिबुद्धौ भवत इति कथंचिदित्याह" - प्रतिबोधियइं मातापितानें । इहलोक-परलोकरूप उभयलोकें सफल “उभयलोकसफलं. जीवितं प्रशस्यत इति शेषः ।" "समुदायकृतानि कर्माणि समुदायफलानीत्यनेन भूयोपि योगाक्षेपः ।" समुदायई कर्यां शुभ कर्म धर्मसंबंधियां ते समुदायें फलनां देनारा थाय । तथा चाह-एवं-ए रीतें समुदायें शुभकार्य करतां-समुदाय अनुभवतां सुदीर्घ अवियोग भवपरम्परायें सर्वनें आपणनें थाय । अन्यथा- इंम न करीयें तो एक वृक्षना द(व)सनारा पक्षीगण तेहुनें समान ए चेष्टित छै । यथोक्तं"वासवृक्षं समागम्य, विगच्छंति यथाण्डजाः । नियतं विप्रयोगांतस्तथा भूतसमागमः ॥१॥" इत्यादि । एज अर्थ वली कहें छे: अनिवारितप्रसर छे मृत्युअल्पायुपणे करी नजीक छ । च-पुनः संसारसमुद्रमां दुर्लभ छै मनुष्यपणुं, समुद्रमा पड्युं रत्न तेहनी प्राप्तिनई तुल्य छई, अतिदुरापमित्यर्थः । अति-घणा अन्य भव , मनुष्यपणा विना । पृथिवीकायादि संबंधे कायस्थितिइं रहतां मनुष्यपणुं किहांथी गयुं फिरी मलें ए भावार्थ । यथोकुं(क्तं)-"असंखोसप्पिणीओ, एगिदिआण य चउण्हं । ता चेव ओ अणंता, वणस्सतीए उ बोधव्वा ॥१॥ अभ्य(न्य)भव केहवा छै ? उत्कट छै असातवेदनीय जिहां एहवा छइं । मोहोदयनी तीव्रताई मोहांधकार जिहां छई । असच्चेष्टा हेतुपण अकुशल कर्मनो अनुबंध करावें एहवा-अयोग्य । चारित्र धर्मनई योग्य वली ए मनुष्यपणुं संसारसमुद्रे तारकपणे करी पोत सरिखं छै । युक्त धर्मकार्यनें विषई जोडवानई आश्रवरोधई करी ढांक्या में प्राणाति पातादिक छिद्र निरंतर ज्ञानोपयोगिपणा माटे । ज्ञान छे कर्णधार जिहां तपरूप पवनें जवनं कहतां वेगवंत । खणे एस दुल्लहे सव्वकज्जोवमाईए सिद्धिसाहगधम्मसाहगत्तेणं । उवादेआ य एसा जीवाणं । जपणं (जं ण) इमीए जम्मो, न जरा, न मरणं, न इट्टविओगो, नाणिट्ठसंपओगो, न खुहा, न पिवासा, न अन्नो कोइ दोसो, सव्वहा अपरतंतं जीवावत्थाणं असुभरागाइरहिअं संतं सिवं अव्वाबाहंति । विवरि( री )ओ अ संसारो इमीए अणवट्ठी( ट्ठि)असहावो । इत्थ खलु सुही वि असुही, संतमस( सं तं, सुविणुव्व सव्वमालमालंति । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनुसन्धान ४२ ता अलमित्थ पडिबंधेणं । करेह मे अणुग्गहं । उज्झमह एअं वुच्छि दित्तए । अहंपि तुम्हाणुमईए साहेमि एअं निव्विण्णो जम्ममरणेहिं । समिज (ज्झ ) इ अ मे समीहिअं गुरुपभावेणं । एवं सेसेवि बोहिज्जा । तओ सममेएहिं सेविज्ज धम्मं । करिज्जोचिअकरणिज्जं निरासंसो उ सव्वदा । एअं परममुणिसासणं । क्षण एक दुर्लभ छें, सर्व बीजा जे कार्य तेहोनी उपमाथी अतीत ए क्षण छई, सिद्धिना साधनार जे धर्म तेहनुं साधकपणुं ए क्षणमां छे तेणें करी आदरवायोग्य च पुनरर्थे, ए सिद्धि जीवोनई जे कारणें । न ए सिद्धि मानवीनें विषें प्रादुर्भावलक्षण (जन्म) नथी, वयोहांनि नथी, प्राणत्याग नथी, इष्टनो वियोग- इष्टना अभाव माटई नथी, अनिष्टतो संप्रयोग अनिष्टना अभाव माटें नथी, बुभुक्षा नथी, उदकेच्छा नथी, बीजो कोय शीतउष्णादि दोष [ नथी] | सर्वथा स्वाधीन ए सिद्धिनें विष आत्मानुं रहेवुं, असुभ रागाइ रहिअं क० अशुभ एहवा जे रागादिक तेहुंणे रहित ए अवस्थान छई । " शांतं - शक्तितोपि क्रोधाद्यभावेन शांतं शिवं सकलाशिवाः व (य)तः निःक्रियपणें करी अव्याबाध छ । विपरीत छें, च पुनरर्थे, संसार, ए सिद्धिथी जन्मादिरूपपणा माटें ए सिद्धिथी संसार विपरीत छै । सर्व उपद्रवनो आलय हैं । यथाह"जरामरणदौर्गत्य-, व्याधयस्तावदासतां । मन्ये जन्मापि वीरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरं ॥" अनवस्थित छे स्वभाव जेहनओ एवो संसार छें । संसारमां निश्चयई सुखी पण असुखी पर्यायथी, सत् पण असत् पर्यायथी, स्वप्ननी परें सर्व आलमाल छई, आस्यानं (ना) अभावई करी । तत् कारण - माटें पूर्ण संसारनें विषें प्रतिबंधे करो करो मुझनें अनुग्रह प्रति उद्यमवंत । तथा ओए संसारनई विच्छेद करवानें हुं पण तुमारी अनुमति साधुं संसारविच्छेदनें । खिन्न - उदासीन लुं जन्ममरणें करी । किमित्यत आह- जन्ममरणां (णा) भ्यां संसारगामिभ्यां । सिद्धि पामई च पुन: माहरूं समीहित-संसारव्यवच्छेदनरूप, गुरु- अर्हदादिक तेहुनें प्रभावें करी । ए रीतिई भार्यादिक शेषनें पण बुजवीयैभार्यादि (दी) नि शेषाण्यपि बोधयेदौचित्योपन्यासेन । तार पछी साधें- माता पित्रादि साथें सेवीयें चारित्र - धर्म्मनई । " ततः समं एभिर्मात्रापित्रादिभिः संवेत धर्म चारित्रलक्षणं ।" करीयें उचित करणीय प्रति इहलोक परलोक संबंधि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ आशंसायें रहितनु पुनः सर्वदा । ए वीतरागनुं शासन कहतां वचन छई । ___अबुज्झमाणेसु अ कम्मपरिणईए विहिज्जा जहासत्तिं तदुवगरणं आओवायसुद्धं समईए । कयण्णुआ खु एसा । करुणा य धम्मप्पहाणजणणी जणंमि । तओ अणुणा( ण्णा )ए पडिवज्जिज्ज धम्म । अणबुझ्ये छतई च-पुन: कर्मपरिणतिई करी, करीयें शक्तिनें अनुसारई तेहुनु उपकारी उपकरण अर्थजातादिक, कारणे कार्यनो उपचार करी अर्थजातादि उपकरण कही छै। आयें उपायें शुद्ध स्वमतिइं करी । कृतज्ञपणुं छै निश्चयें । एक करुणा च-पुनः धर्मनी प्रधान माता , जननें विौं । ततः मातापितायें अनुज्ञात थका पडिवजीयें चारित्रधर्म प्रति । अण्णहा अणुवहे चेव उवसि हा )जुत्ते सिआ । धम्माराहणं खु हि सव्वसत्ताणं । तहा तहेअं संपाडिज्जा । सव्वहा अपडिवज्जमाणे चइज्जा ते अट्ठाणगिलाणोसहत्थचायनाएणं । इम करतां पण मातापितानी अनुज्ञा न थाय तारें, भार्याधुपलक्षण मेतत् । भावथी कपटरहित ज कपटवंत थाय शासनोन्नतिनिमित्तमित्यर्थः । "निर्माय एवं(व) भावेन, मायावांस्तु भवेत् क्वचित् । पश्येत् स्वपरयोर्यत्र सानुबंधं हितोदयं ॥१॥" इंम धर्माराधन ज निश्चयें हितावह छे सर्व सत्त्वोनें । तिम तिम ज दुस्वप्नादिक कहणे करीने धर्माराधन निपजावीयें । ए प्रकारें पण सर्वथा कहण न मानें मातापितानइं त्यजीयें । मातापिताने अस्थाने वनादिकें ग्लानने औषधनें अर्थे त्याग ते दृष्टांते । से जहानामए केइ पुरिसे कहंचि कंतारगए अम्मापिइ समेए तप्पडिबद्धे वच्चिज्जा । तेसिं तत्थ नियमघाई पुरिसमित्तासज्झे संभवे ओसहे महायंके सिआ । तत्थ से पुरिसे तप्पडिबंधाओ एवमालोचिअ 'न भवंति एए नियमओ ओसहमंतरेण, ओसहभावे अ संसओ, काल सहाणि अ एं( ए)आणि', तहा संठविअ संठविअ तदोसहनिमित्तं सवित्तिनिमित्तं चयमाणे साहू । एस चाए आचाए, अचाए चेव चाए फलमित्थ पहाणं बुहाणं । धीरा एअदंसिणो । स ते उ(ओ)सहसंपायणेण जीवाविज्जा । संभवाओ पुरिसोचिअमेअं । ते दृष्टांत-जिम नाम कोइक पुरुष कथंचित् अटवीमा गयो मातापिताई Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनुसन्धान ४२ समेत मातापितानें प्रतिबंधे प्रतिबद्ध जाय । मातापितानइं अटवीने विर्षे नियमघाती,पुरुषमात्रइं असाध्य, संभवें छे औषध जेहनुं एहवो, तत्काल मारें जे रोग. ते महातंक थाय । तिहां ते पुरुष मातापिताना प्रतिबंधथी इंम विचारीनई 'न जीवई मातापिता नियमई औषध विना, औषध मलें वली संदेह-कदाचित् जीवई, हुं औषध लेई आQ एटलो काल सहें वली मातापिता' । ते प्रकारइंवृत्त्याच्छादनादिना प्रकारेण सम्यक् रीतें थापीनई मातापिताने, औषध निमित्तई पोतानी आजीवीकनें अर्थई त्यजतो सारो । ए त्याग अत्याग, संयोग फल छै एहनुं माटें । अत्याग ज वियोग-फलें फलें ते माटई । फल इहां प्रधान , पंडितोनें । धीर पुरुष क्रियाना फलना देखणहार छ । ते पुरुष मातापितानें औषधनें नीपजाववै करीनई मातापितानइं जीवाडई । औषध लावीने करावे तो जीवें इंम संभवें छे तेथी धीर पुरुषनें उचित छे ते इंम अटवीमां त्यजq । एवं सुक्कपक्खिए महापुरिसे संसारकंतारपडिए अम्मापिइसंगए धम्मपडिबद्धे विहरिज्जा । तेर्सि तत्थ नियमविणासगे अपत्तबीजाइपुरिसमित्तासज्जे संभवंतसंमत्ताइओसहे मरणाइविवागे कम्मायके सिआ । तत्थ से सुक्कपक्खिगपुरिसे धम्मपडिबंधाओ एवं समालोचिअ 'विणस्संति एए अवस्सं सम्मत्ताइओसहविरहेण, तस्स संपाडणे विभासा, कालसहाणि अ एआणी णि) ववहारओ' । तहा संठविअ संठविअ इहलोगचिंताए तेर्सि संमत्ताइओसहनिमित्तं विसिहगुरुमाइभावेण सवित्तिनिमित्तं च किच्चकरणेण चयमाणेसंजमपडिवत्ति(त्ती )ए ते साहुसिद्धीए । एस चाए अचाए, तत्तभावणाओ। अचाए चेव चाए, मिच्छाभावणाओ । तत्तफलमित्थ पहाणं परमत्थओ । धीरा एअदंसिणो आसन्नभव्वा । स ते (ते )सम्मत्ताइओसहसंपाडणेण जीवाविज्जा अच्वंतिअं अमरणाऽवंझबीअजोगेणं । संभवाओ पुरिसोचिअमेअं । दुष्पडिआराणि अ अम्मापिईणि। एस धम्मो सयाणं । भगवं इत्थ नायं परिहरमाणे अकुसलाणुबंधि अम्मापिइसोगंति। ए दृष्टांत । इंम हवें आ अर्थोपनय कहै छै- शुक्लपाक्षिक चरमावर्ती महापुरुष परीत्तसंसारी, यथोक्तं-संसाररूपकांतार जे अटवी तेहमां 'पडिए' कहतां पडयो छतो, "जस्स अवड्डो पुग्गल-परियट्टो सेसओ य संसारो । सो Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ सुक्कपक्खिओ खलु, अहिगे पुण कण्हपक्खीओ ||१|| " संसारकंतार पतित: सन् । मातापिताइं सहित उपलक्षणमेतत् भार्यादीनां । धर्में प्रतिबद्ध विहरई । ते मातापितानें ते संसारकंतारमां निश्चयें विनाशकारी, अप्राप्त छें बीजादिक जेणें एहवो जे पुरुष मात्र तेणें असाध्य एहवो, संभवे छे सम्यक्त्वादिक औषध जेहनुं एहवओ, मरणादिक छै विपाक जेहनो एहवो कर्मनो ज आतंक कहतां सव्वोघाती रोग थाय । तिहां ए शुक्लपाक्षिक पुरुष धर्मप्रतिबंधथी'धर्मप्रतिबंधाद्धेतोः' ए रीतिं विचारीनई - 'विनाश पामें मातापिता अवश्य सम्यक्त्वादि औषध विना, सम्यक्त्वादिक औषध नीपजाववामां विभाषा कहतां भजना, औषध मेलवं एटलो काल टकै एहवां ए मातापिता छें व्यवहारथी जोतां - 'व्यवहारतः तथा जीवनं संभवेत्, निश्चयतस्तु न, यथोक्तं आयुषि बहूपसर्गे, वाताहतसलिलबुद्बुदानित्यतरे (नित्ये ) । उच्छूस्य निःश्वसिति यः, सुप्तो वा यद्विबुध्यते तच्चित्रं ॥ तथा ते प्रकारें 'सौहित्यापादनं संस्थाप्य संस्थाप्य' - थापी थापीनई इहलोकचिताई ते मातापितानें, सम्यक्त्वाद्यौषधनिमित्तें विशिष्टगुर्वादिभावई - 'विशिष्टगुर्वादिभावेन धर्मकथादिभावात् ' पोतानी वृत्तिनें निमित्तई च- पुनरर्थे, कृत्यनें करवें करीनें- 'कृत्यकरणेन हेतुना त्यजतो- त्यजनं', संयमनी प्रतिपत्तिइं मातापितानई, 'संयमप्रतिपत्त्या धर्मशीलः ' सिद्धिनें विषें, ए त्याग अत्याग, तत्वभावनाथी, 'तद्धितप्रवृत्तेः' । अत्याग तेज त्याग, मिथ्याभावनाथी, 'तदहितप्रवृत्तेः' । तत्त्वफल जे ते इहां प्रधान छे बुधजनोनई, परमार्थे - परमार्थेन आसत्रभय एहना देखणहारा आसन्नभव्य - बीजा नहीं, 'शुक्लपाक्षिक:', मातापितानें सम्यक्त्वाद्यौषधनें नीपजाववें करीनें जीवाडइं आत्यंतिकभावें कथमित्याह'अमरणमरणावंध्यबीजयोगेन चरममरणावंध्यकारणसम्यकत्वादियोगेनेत्यर्थः ' । नथी मरण जेहथी ते मरणर्ने अमरण- मरण कहीयै, ते अमरण-मरणनुं अवंध्यबीज जे सम्यक्त्वादि तेहनें योग संभवे छई एक करवुं माटे पुरुषोचित छई ए 'किमित्यत आह-संभवेत्येतदत एवाह संभवात् पुरुषोचितमेतद्यदुक्तेनैतत्त्याग इति' । दुःप्रतिकार छै- 'दुःप्रतिकारौ' माता-पिता इम जांणीनें 'मातापितरौ इति कृत्वा', ए धर्म्यं सत्पुरुषोनो 'सताम्' । भगवान् इहां - 'महावीर एव अत्र' दृष्टांत 'ज्ञातं' परिहरतो - 'परिहरन्' अकुशलानुबंधि तथाविध कर्मपरिणामें करी अकुशल कर्मनो अनुबंध करावें एहवो मातापितानो शोक ते प्रतें 'गर्भाभिग्रहप्रतिपत्त्या अकुशलानुबंधिनं तथा कर्मपरिणत्या मातृपितृशोकं प्रव्रज्याग्रहणोद्भवमिति' । - २१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ उक्तं च-अह सत्तमंमि मासे, गब्भत्थो चेवभिग्गहं गिते । णाहं समणो होहं, अम्मापियरे जियंतंमि ।।१।" प्रस्तुतं निगमनायाह एवमपरोवतावं सव्वहा गुरुसमीवे, पूइत्ता भगवते वीअरागे साहू अ, तोसिऊण विहवोचिअं किवणाई, सुप्पउत्तावस्सए सुविसुद्धनिमित्ते समहिवासए विसुज्झमाणो महया पमोएणं सम्मं पव्वइज्जा लोअधम्मेहितो लोगुत्तरधम्मगमणेणं । एसा जिणाणमाणा महाकल्लाणत्ति न विराहियव्वा बुहेणं महाणत्थभयाओ सिद्धिकंखिणत्ति । पवज्जागहणविहिसुत्तं ३॥ 'सर्वथा सम्यक् विधिविशेषमाह'-सर्वथा सुगुरुने समीपें, अन्यत्र नहीं, "सुगुरुसमीपे नान्यत्र' । पूजीनई-पूजित्वा ज्ञानादिशक्तियुक्त भगवंतोने- 'भगवतः' वीतराग कहतां जिन तेहोनें । साधूओनई 'साधून्-यतीन्' तुष्ट करीनई 'तोषित्वा'। विभवनें उचित- 'विभवोचितम्' कृपणादिकनई 'दुःखितसत्त्वानित्यर्थः' । सुप्रयुक्त आवश्यक जेणे एहवौ - 'सुप्रयुक्तावश्यक: समुचितनेपथ्यादिना, सुविशुद्धनिमित्तः प्रतियोगं सम्यक् अभिवासितः । गुरुइं गुरुमंत्रई करीनई 'वासितो गुरुणा गुरुमंत्रण' विशेषे परिणामादिकें विशुध्यमान । महोटें-महता प्रमोदें-लोकोत्तर प्रमोदें सम्यक् भाववंदनादि शुद्धि प्रव्रजइं-'सम्यक् भाववंदनादिशुद्ध्या प्रव्रजेत् । किमुक्तं भवति ? लोकधर्मेभ्यः लोकोत्तरधर्मगमनेन प्रकर्षेण प्रव्रजेदित्यर्थः' - लोक धर्मोथी लोकोत्तरधर्ममां गमनई करी । ए वीतरागोनी आज्ञा छै - 'एषा जिनानामाज्ञा-यदुतैवं प्रव्रजितव्यं, इयं च महाकल्याणेतिकृत्वा न विराधितव्या बुधेन नान्यथा कर्त्तव्येत्यर्थः । कस्मादित्याहमहानर्थभयात् । नाज्ञाविराधनतोऽन्योऽनर्थः । अर्थवत्तदाराधना इत्यत एवाहसिद्धिकांक्षिणा मुक्त्यथिनेति । न खल्वाज्ञाराधनातोऽन्यः सिद्धिपथ इति भावनीयं ।' ए महाकल्याण छइं इंम जाणीनई न विराधवी-अन्यथा न करवी पंडितई, आज्ञाभंगजनित महा अनर्थना भयथी, मोक्षना अभिलाषीय । प्रव्रज्या ग्रहणविधि सूत्रं समाप्तं । तत्त्वतः प्रव्रज्याग्रहणविधि-प्रव्रज्याग्रहणविध्यर्थ सूचकं सूत्रं समाप्तं । पंचसूत्रकव्याख्यायां तृतीयसूत्रव्याख्या समाप्ता ॥३॥ सांप्रतं चतुर्थसूत्रव्याख्या प्रारभ्यते । अस्य चायमभिसंबंधः । अनंतरसूत्रे साधुधर्मे परिभाविते यत्कर्त्तव्यं तदुक्तं तच्च विधिना प्रव्रज्या ग्राह्येतेते(त्ये)तत् । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ २३ अस्याः चर्यामभिधातुमाह-"स एवमभिपब्वइए समाणे सुविहिभावतो किरियाफ्लेण जुज्जतीत्यादि" । स प्रस्तुतो मुमुक्षुः, एवमुक्तेन विधिना अभिप्रव्रजितः सन् सुविधिभावत: कारणात्, क्रियाफलेन युज्यते । सम्यक् क्रियात्वादधिकृतक्रियायाः । स एव विशिष्यते-विशुद्धचरणो महासत्त्वः। यत एवंभूतः अतो न विपर्ययमेति मिथ्याज्ञानरूपं । एतदभावे-विपर्ययाभावो(वे)ऽभिप्रेतसिद्धिः सामान्यैव कुत इत्याह-उपायप्रवृत्तेः । इयमेव कुत इत्याह-नाविपर्यस्तो उपाये प्रवर्तते । इयमेवाविपर्यस्तस्याविपर्यस्तता यदुतोपाये प्रवृत्तिरन्यथा तस्मिन्नेव विपर्ययः । एवमपि किमित्याह-उपायश्चोपेयसाधको नियमेन कारणं कार्याव्यभिचारीत्यर्थः । अतज्जननस्वभावस्य तत्कारणत्वायोगादति प्रसंगात् । एतदेवाह-तत्स्वतत्त्वत्याग एवोपायः स्वतत्त्वत्याग एवाऽन्यथा-स्वमुपेयमसाध्यतः । कुतः?इहातिप्रसंगात्, तदसाधकत्वाविशेषेणानुपायस्याप्युपायत्वप्रसंगात् । न चैवं व्यवहारोच्छेद आशंकनीय इत्यर्थः । निश्चयमतमेतदिति सूक्ष्मबुद्धिगम्यं । सांप्रतं चतुर्थसूत्रव्याख्या ।। स एवमभिपव्वइए समाणे सुविहिभावा(व)ओ किरिआफलेण जुज्जइ, विसुद्धव( चरणे महासत्ते, न विवज्जयमेइ । एअअभावेऽभिप्पेअसिद्धी उवायपवित्ति(त्ती )ओ । नाविवज्जत्थोऽणुवाए पयट्टइ । वाओ अ उवेअसाहगो निअमेण । तस्सतत्तच्चाओ अण्णहा अइप्पसंगाओ। निच्छयमयमेअं । ते ए रीतई अभिप्रव्रजित छतो, सुविधिना भावथी क्रियाना फलनी साथें जोडीइं, विशुद्ध छै चरण जेहनु, महासत्व, न विपर्ययनें पांमई । ए विपर्ययनें अभावें इष्टकार्यनी सिद्धि थाय उपाय-प्रवृत्तिथी । नही अविपर्यस्त पुरुष अनुपायें प्रवृत्तई ! कारण च-पुनः कार्यनो साधनार अव्यभिचारें छ । कारणनो कारणपणानो योग न ठरें अन्यथा-कार्य न करें तो, अतिप्रसंग थाय । निश्चयनु मत छई । से समलिट्टकंचणे समसत्तुमित्ते नियत्तग्गहदुक्खे पसमसुहसमेए सम्म सिक्खमाइअइ, गुरुकुलवासी, गुरुपडिबद्धे, विणीए, भूअत्थदरिसी, न इउ हिअतत्तं रं )ति मन्नइ, सुस्सूसाईगुणजुत्ते तत्ताभिनिवेसा विहिपरे परममंतोत्ति अहिज्जइ सुत्तं बद्धलक्खे आसंसाविप्पमुक्के आययही। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनुसन्धान ४२ स तात )मवेइ सव्वहा । तओ सम्म निउंजइ ।। ए सूक्ष्मबुद्धिगम्य ते समान , पाषाण कनक जेहनें एहवउं, समान छे शत्रु मित्र जेहनई, मट्युं छे कदाग्रहनुं दुख जेहनई एहवउ, प्रसमसुखें सहित, सम्यक् ग्रहणासेवनरूप शिक्षा ग्रहई, गुरुकुलवासी-गुरुकुलमा निमग्न, चित्तवृत्तिई गुरुप्रतिबद्ध, गुरुबहुमानथी, विनीत बाह्य विनयई, भूतार्थदर्शी नथी गुरुवासथी हिततत्त्व इंम मांनइं, सुश्रूषादिक गुणइं संयुक्त,तत्त्वनें विर्षे अभिनिवेश छई जेहनइं, विधिमां तत्पर, रागादि विषनो परममंत्र इंम जांणी पाठे श्रवणें करी भणई सूत्र प्रति, अनुष्टेय प्रति बांध्यं छे लक्ष्य जेणइं,आसंसाइं विप्रमुक्त, मोक्षार्थी, एहवो ते सूत्र प्रति जाणे यथातथपणई, जांणवाथी सम्यक् सूत्रने आत्मार्थ साधनपणे जोडें । एअं धीराण सासणं । अण्णहा अणिओगो, अविहिगहिअमंतनाएणं । अणाराहणाए न किंचि, तदणारंभाओ धुवं । इत्थं मग्गदेसणाए दुक्खं, अवधीरणा, अप्पडिवत्ती । नेवमहीअमहीअं, अवगमविरहेणं । न एसा मग्गगामिणो । विराहणा अणत्थमुहा, अत्थहेऊ, तस्सारंभाओ धुवं । इत्थ मग्गदेसणाए अणभिनिवेसो, पडिवत्तिमित्तं, किरिआरंभो । एवंपि अहि ही )अं अहि ही )अं, अवगमलेसजोगओ । ए महावीरादिक धीर पुरुषोनुं शिक्षाकरण छै । अविधिइं अध्ययन करवें विपर्यय, अविधिगृहीत मंत्रने दृष्टांतइं, अनाराधनाई करी इष्ट वा अनिष्ट फल नही, परमार्थथी साधनना अनारंभपणा माटें निश्चयें । अनाराधनाने विषई लिंग देखा? 2 - तात्त्विक देशना सांभलतां अना-रा(अनाराधना) कर्मानई मनाग् लधुतर कर्माने अद(व)हीलना थाई, दुख न थाय तेथीयें लघुकर्माने अप्रतिपत्ति थाय, अवधीरणा न थाय, नही इंम भण्यु भण्यु कहीयें सम्यक् - अवबोध विना, नही ए विराधना मार्गगामि जीवनें, एकांते अनाराधना अध्ययननी उन्मादादिकें अनर्थमुखा, गुरुतर दोषनी अपेक्षायें अर्थ-हेतु छे, मोक्षगमनना ज आरंभथी निश्चयें, ए विराधना छतां तात्त्विक देशनामां सांभलतां अनभिनिवेश होय, हेयोपादेय आश्री सम्यग् विराधका प्रतिपत्तिमात्र होय, अनभिनिवेश थाय अल्पतर विराधकनें, क्रियारंभ थाय प्रतिपत्तिमात्र नही, इंम पण विराध[कने अधीत सूत्र अधीत कहीयें भावथी, स्यां माटें, सम्यग् Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ २५ अवबोधलेशने योगें करीनइं । अयं सबीओ नियमेण । मग्गगामिणो खु एसा अवायबहुलस्स । निरवाए जहोदिए सुत्तुत्तकारी हवइ पवयणमाइसंगए पंचसमिए तिगुत्ते । अणत्थपरे एअच्चाए अविअत्तस्स, सिसुजणणीचायनाएणं । विअत्ते इत्थ केवली एअफलभूए । सम्ममेअं विआणइ दुविहाए परिणा( ण्णा )ए। ए विराधक सम्यग्दर्शनादि युक्त नियमें,प्राप्तबीज पुरुषनें निश्चयें विराधना निरुपक्रम क्लिष्ट कर्मवंतनई, निरपाय मार्गगामी सूत्रोक्तकारी थाय. अष्टप्रवचनमाताई सहित सामान्यइं विशेषे पंचसमितियें समित त्रिण गुप्तिइं गुप्त, अनर्थ उपजाववामां तत्पर छै प्रवचनमातानो त्याग साधकनइं भावबालनई । कोण दृष्टांतें ? बालने मातानो त्याग ते उदाहरणइं । ते बाल मातानें त्यजवें मरई, तिम साधक चारित्र-प्राण-क्षरणें करी विनसैं । व्यक्त इहां भाव चिंतायें चितवतां सर्वज्ञ प्रवचनमातृफलभूत, सम्यक् भावपरिणतिइं अनंतर कथित जाणई बोधमात्ररूप ज्ञपरिज्ञायें, तद्-गर्भ क्रियारूप प्रत्याख्यान-परिज्ञाई । तहा आसासपयासदीवं संदीणाअथिराइभेअं । असंदीणथिरस्थमुज्जमइ । जहासत्तिमसंभंते अणूसगे, असंसत्तजोगाराहए भवइ । उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए मुच्चइ पावकम्मुणत्ति विसुज्झमाणे आभवं भावकिरिअमाराहेइ । पसमसुहमणुहवइ अपीडिए संजमतवकिरिआए, अव्वहिए परिसहोवसग्गेहि, वाहिअसुकिरिआनाएणं । तथा आश्वास-प्रकाश-द्वीपर्ने अथवा आश्वास-प्रकाश-दीपनें सम्यक् जाणइं ! इहां भवसमुद्रनें विर्षे आश्वासद्वीप, मोहांधकार निचित दुःखगहननें विर्षे प्रकाशदीप, एक प्लवनवान् द्वीप एक स्थिर दीप, एक अस्थिर अप्लवनवाननेऽर्थे स्थिरनें अर्थे उद्यम करें सूत्रनीति, शक्तिनें अनुसारें, भ्रांतिरहित, उत्सुकताइं रहित, असंसक्तयोगनो आराधक-निःसपत्न श्रमणपणाना व्यापारनो कर्ता थाय, उत्तरोत्तर धर्मव्यापारनी सिद्धिई, मुंकाई ते ते गुणनु प्रतिबंधक जे पाप कर्म तेणें । इंम विशुध्यमान छतौ भव सूधी निर्वाणसाधक क्रियाने नीपजावें । ए यथासंख्यें मनुष्यने विर्षे क्षयोपशमिक चारित्ररूप, क्षायिक चारित्ररूप, क्षायोपशमिक ज्ञानरूप में ठेकाणे, पेहलो अक्षेपें इष्ट-सिद्धिनें अर्थे थाय सप्रत्यपायपणा माटें, बीजौ तौ सिद्धनें (नीपजावे), तात्त्विक प्रशमसुख Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ प्रति अनुभवें, अणपीड्यौ आश्रवनिरोध अनशनादिरूप संयमतपक्रियायें अव्यथित थको, क्षुत् दिव्यादिक परीषहोपसर्गई करीने,रोगवंतने शोभन क्रिया ते उदाहरणई। से जहानामए केइ महावाहिगहिए अणुहूअतव्वेअणे विण्णाया सरूवेणं, निविण्णे तत्तओ, सुविज्जवयणेण सम्मं तमवगच्छिअ जहाविहाणओ पवण्णो सुकिरिअं, निरुद्धजहिच्छाचारो, तुच्छपत्थभोई मुच्चमाणे वाहिणा निअत्तमाणवेअणे समुवलब्धारोगं पवट्ठमाणतब्भावे तल्लाभनिव्वुइणे तप्पडिबंधाओ सिराखाराइभो(जो )गेवि वाहि समारुग्गविणाणेणं इडनिष्फत्तीओ अणाकुलभावयाए किरिओवओगेण, अपीडिए, अव्वहिए, सुहलेस्साए वड्डइ, विज्जं च बहु मन्नइ। ते-जिम, आमंत्रणे । कोइक सत्त्व महाव्याधिई गृहीत एहवौ, अनुभवी छे व्याधिनी वेदना जेणे एहवौ, विशेषे जाण* वेदनानो स्वरूपें, व्याधि वेदनायै उदास तत्वथी, सुवैद्य वचनें करी अविपरीतपणे व्याधिनें जाणिनें, देवता पूजादिलक्षण यथाविधाने प्रपन्न परिपाचनादिरूप शुभक्रिया प्रति, प्रत्यपायना भयथी निरुद्ध छे यथेच्छाई प्रवर्त्तन जेणई एहवो छतो, व्याधिना अनुगुणपणाथी तुच्छ पथ्यभोजननो करणहार, ए प्रकारें मुंकातौ स्वासादिकनें जवें व्याधिई, निवर्तमान कहतां वलमान छे व्याधिनी वेदना जेहनें एहवौ कंडू प्रमुखना अभावथी, सदरूपता पामवाथी नीरोगपणुं पामीनई, प्रकर्षे वधतौ छै आरोग्यनो अभिलाष जेहनें एहवो, आरोग्यलाभनी निष्पत्तिइं, निरोग्यपणाना प्रतीबंधथी आरोग्यप्रतिबंधाद्धेतोः, शिरावेध-क्षारपातादिकनें थवें पण व्याधि, सम्यग् जे आरोग्य तेहनई ज्ञानइं करी, आरोग्यनी निष्पत्तिथी, निबंधनना अभावथी अनाकुल- भावपणे करीने क्रियाने विर्षे उपयोग जे बोध तेणें, अपीडित, व्यथारहित निर्वातस्थान आसन औषधपानादिकें करीने, प्रशस्तभावरूप शुभलेश्यायें वृद्धिनें पामई, वैद्यनें च पुनः महाऽपाय निवारवानो ए माहरें हेतु । एवं कम्मवाहिगहिए अणुभूअजम्माइवेअणे, विपणाया दुक्खरूवेणं, निविण्णे तत्तओ तओ, सुगुरुवयणेण अणुट्ठाणाइणा तमवगच्छिा पुव्वुत्तविहाणओ पव्वण्णे सुकिरिअं पव्वज्जं, निरुद्धपमायायारे, असारसुद्धभोई, मुच्चमाणे कम्मवाहिणा, निअत्तमाणि?★ कंडूगृहीत कंडूयणकारीनी परि विपर्यस्त नहीं । एवं टि. छे प्रतिमध्ये ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ २७ विओगाइवेअणे, समुवलब्ध चरणारोग्गं पवड्डमाणसुहभावे, तल्लाभनिव्वुईए तप्पडिबंधविसेसओ परिसहोवसग्गभावेवि तस्स( तत्त)संवेअणाओ कुसलासयवुडीओ थिरासयत्तेण धम्मोवओगाओ सया थिमिए तेउल्लेसाए वड्डइ, गुरुं च बहु मन्नइ जहोचिअं असंगपडिवत्ति( त्ती )ए, निसग्गपवित्त(त्ति )भावेण एसा गुरुई विआहिआ भावसारा विसेसओ भगवंतबहुमाणेण । जो मं पडिमन्नइ सो गुरुं ति तदाणा । अन्नहा किरिआ अकिरिआ कुलडानारीकिरिआसमा, गरहिआ तत्तवेआई)णं अफलजोगओ । विसण( ण्ण)तित्तीफलमित्थ नायं । आवढे खु तप्फलं असुहाणुबंधा धे)। ए सम्यग् ज्ञानथी बहुमाने माने इंम, कर्मव्याधिई गीहीत प्राणी,अनुभवी छे जन्मजरामरणादिकनी वेदना जेणें एहवो, विशेषे ज्ञाता कहतां जांण दुखरू जन्मादिक वेदनानो, तिहां ज आसक्तादिकं विपर्यस्त नही उदासीन परमार्थथी जन्मादिवेदनाथी, सुगुरुने वचनें अनुष्टानादिकई करीनई सुगुरु प्रतें अमें कर्मव्याधि प्रति जांणीनें, तृतीय सूत्रमां कडं जे विधानते विधाने पडिवज्यौ छतौ शुभ छै क्रिया जेहमां एहवी प्रवज्या प्रति, निरुद्ध छइं प्रमाद- आचरण जेणे यदृच्छाई करी, संयमने अनुगुणपणे अर(असार)शुद्ध भोजननो भोगी, ए प्रकारे मुकातो कर्मरूप व्याधिइं, तिम मोहनई नाशें करी वलमान छे इष्टवियोगादिक वेदना जेहनई एहवो, सम्यग् पामीनइं सदरूप तें पामवें चरणधर्मरूप आरोग्यनें प्रकर्षे वधतो छ शुभ चरणारोग्यनो भाव जेहनई एहवो, चरणरूप आरोग्यना लाभनी निष्पत्तिइं, चरणरूप आरोग्यनो जे प्रतिबंध तेह बहुतर कर्म-व्याधिना विकारने नाशें तेहना विशेषथी, स्वाभाविक कारणथी क्षुदादि-परीषहे दिव्यादि उपसर्ग-तेहोनें योगें पण, सम्यग् ज्ञानथी, क्षयोपशमिकभावलक्षण कुसलाशयनी वृद्धिई, स्थिरचित्तपणे करी कर्तव्यताना बोधथी, सदा भावद्वंद्वे रहित प्रशांत, शुभ प्रभावरूप तेजोलेश्यायें वृद्धिनें अनुभवें,भीद(भव)वैद्यनें वली बहुमानें मानई, उचितपणें-यथौचित्येन स्नेहरहित भावनी प्रतिपत्तई, सांसिद्धिक प्रवृत्तिभावें करीनइं असंगप्रतिपत्ती गुर्वी ते मोटी वखाणी छे भगवंतें-व्याख्याता, भावें सारऔदइकभावनें विरहें विसेषथी असंगप्रतिपत्ति, इहां युक्त्यंतर कहे , - अचिंताचिंतामणिकल्प तीर्थंकरथी प्रतिबंधई, जे मुझनें भावथी प्रतिभन्न्य(न्य)त Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ कहतां मानइ ते गु(रु)ने पणइं, भगवंतनी आज्ञा । इत्थं तत्त्वं व्यवस्थितं, गुरुबहुमान विना प्रत्युपेक्षणादिरूप क्रिया पण अक्रिया-सक्रियाथी अन्या, केहवी ? दुःशील वनितानी उपवासादिक क्रियाने सरखी क्रिया, ततःकि ? गरहितनइं पंडितोनइ, स्या माटई मोक्षरूप इंष्ट फलथी अन्य जे सांसारिक फल तेहनी योग माटे, एज स्पष्ट करतो कहें जें- मि(वि)ष-मिश्र अन्नथी तृप्ति तेहy फल ते, माषतुष इहां दृष्टांत छ । थोडं विपाके भोग देवें आवर्त्त-संसार ते ज दारुण, क्षयोपशमथी माषतुषनी परें, यथोक्तं-"विवेकशुभभावपरिणामा वचनगुरु-तदभावेषु यमिनामिति" । विराधनारूप विषजनित को हवो छई ?, आवर्त्त, तिम तिम विराधनाने उत्कर्षे अशुभनो छे अनुबंध जेहथी एहवो छ। ____ आयवो(ओ) गुरुबहुमाणो अवंझकारणत्तेण । अओ परमगुरुसंजोगो । तओ सिद्धी असंसयं । एसेह सुहोदए, पगिट्टतयणुबंधे, भववाहितेगिच्छी । न इओ सुंदरं परं । उवमा इत्थ न विज्जई । इम सफल गुरुनु अबहुमान कहीनें गुरुनुं बहुमान कहें छे : आयत कहत्तां मोक्ष, गुरुनु बहुमान-गुरु-बहुमान ज मोक्ष ए अर्थ, अवंध्यकारणपणे करीने मोक्ष प्रति अप्रतिबद्ध सम्यक् हेतुपणे करीनें । एज कहई छई-गुरु बहुमानथी परमगुरु तीर्थंकरनो संयोग । ते तिर्थंकरसंयोगथी मुक्ति एकांतई । गुरुबहुमान, इहां कारणे कार्यना उपचारथी, जिम आयु थी (घी) तिम गुरुबहुमान शुभोदय कह्यो,शुभोदयना पुष्टकारण माटई । जिम आयुः स्थितिनुं पुष्ट कारण माटें घृत आयु, तिम ए दृष्टांत-दार्टीतिक-भावना । वली केहवो , गुरु बहुमान ? तिम तिम आराधनानइं उत्कर्षे करीनइं प्रधान शुभोदयनो अनुबंध छै जेहथी एहवौ, संसार-व्याधिनो चिकित्सक गुरुबहुमान ज, हेतुफलभावथी नथी गुरुबहुमानथी सारु, उपमा गुरुबहुमाननै विषई नथी विद्यमान । स एवंपण्णे एवंभावे एवंपरिणामे अप्पडिवडिए वड्वमाणे तेउलेसाए दुवालसमासिएणं परिआएणं अइक्कमई सव्वदेवतेउलेसं । एवमाह महामुणी । तओ सुक्के सुक्काभिजाई भवइ । प्रव्रजित, विमल विवेकथी, एम , प्रज्ञा जेहनी, प्रकृतिइं एहवो छै सोच जेहनो, सामान्य गुरुनेंऽ भावे पण एहवो छे परिणाम जेहनो, इंम अप्रतिपतित छतौ, वर्द्धमान कहतां वधतो, नियोगथी शुभ प्रभावरूप तेजोलेश्यायें बारमासी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ पर्यायइं, एटला कालनी प्रव्रज्यायें अतिक्रमई सर्व देवनी सामान्य शुभ प्रभावरूप तेजोलेश्या प्रति, इंम कहें छई भगवान महावीर । "तत: नामाभिन्नवृत्तः अमत्सरी कृतज्ञः सदारंभी हितानुबंध" एहवो ते शुक्ल नामाभिन्नवृत्तत्वादिप्रधान ते शुक्लाभिजाती एहवो थाय । पायं छिण्णकम्पाणुबंधो । खवइ लोगसनं । पडिसोअगामी, अणुसोअनिवित्ते, सया सुहजोगे, एस जोगी वियाहिए । एस आराहगे सामण्णस्स । जहागहिअपइण्णे सव्वोवहासुद्धे संधइ सुद्धगं भवं सम्म अभवसाहगं लोगकिरिआसुरूवाइकप्पं । तओ ता संपुण्णा पाउणइ अविगलहेउभावओ असंकिलिट्ठसुहरूवा अपरोवताविणीओ सुंदरा अणुबंधेणं न य अण्णा संपुण्णा, तत्तखंडणेणं । प्रायच्छिन (प्रायः छिन्न) छे कर्मानुबंध जेणे एहवौ ते वेद्यने वेदतो, प्रायोग्रहण कर्मशक्तिना अचिंत्यपणा माटें, कदाचित् बो(बां)) पण तथाविध अन्य कर्मने न बंधई, भगवद्वचनथी प्रतिकूल प्रभूत-संसाराभिनंदित सत्त्वक्रिया प्रीतिरूप लोकसंज्ञाने खपावै, प्रतिश्रोतोगामी क० साहमा पूरनो चालनार लोकाचारप्रवाह नदी प्रति, लोकाचारप्रवाह-नदी आश्रीनेंज अनुश्रोतोनिवृत्त, अनुश्रोतोनिवृत्तिना अभ्यासथी ज सदा शुभ व्यापारें संगत एहवो, ए पुरुष भगवंतें योगी व्याख्यात कहतां वखाण्यो । यथोक्तं-श्रामण्य एहवो जे जोगी ते श्रमणभावनो आराधक निस्पादक न्याय छै ए, यथोक्तं-"अणुसोयपट्ठीए (पइट्ठिए) बहुजणंमि पडिसोअलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव अप्पा दायव्वो होउ कामेणं ॥१॥ अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स णिप्पेणं" ॥२॥ जथागृहित-प्रतिज्ञनें सम्यक्त्व प्रवृत्ति थकैं धुरथी मांडी, सर्वोपधाशुद्ध होइं ए प्रकारे निरतिचार, माटई संधत्ते क० जोडे सुद्धभव-जनमविसेसलक्षण प्रतें, सम्यक् प्रकारें सक्रिया करवें करी मोक्ष साधक, "सम्यक्त्वज्ञानचारित्रयोगः सद्योग उच्यते । एतद्योगाद्वियोगी स्यात्, परमब्रह्मसाधकः ॥" दृष्टांत कहें छई-भोगक्रियाने सुरूपादिक तुल्य रूपादिक रहितनें भोगक्रिया सम्यक् न होइ । यथोक्तं-"रूपं वयो वैचक्षण्य-सौभाग्यमाधुर्यैश्वर्याणि भोगसाधनमिति ।" ते सुरूपादितुल्य भव थकी संपूर्ण भोगक्रिया पामें, अविकल कारण थकी, संक्लेस रहित सुखरूपा भोगक्रिया सुन्यताभावें, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसन्धान ४२ परनें संतापनी अणकरनारी, विचक्षणादिभावें अनुबंधें करी अत्यंत सुंदरभली, उक्त लक्षण भोगक्रिया थकी अन्य भोगक्रिया संपूर्ण नथी, स्या माटें ? संक्लेशादिकथी, उभय लोकनी अपेक्षायें भोगक्रिया स्वरूप खंडवे करी, इति परमार्थः । एअं नाणंति वुच्चइ । एयंमि सुहयोगसिद्धी उचिय पडिवत्तिपहाणा । इत्थ भावो पवत्तगो । पायं विग्घो न विज्जई निरनु( णु ) बंधा सुहकम्मभावेणं । अक्खित्ता ओ इमे जोगा भावाराहणाओ तहा, तओ सम्मं पवत्तए, निप्फायइ अणाउले । एवं किरिआ सुकिरिआ एगतनिक्कलंका निक्कलं [क] त्थसाहिआ, तहा सुहा सुहाणुबंधा उत्तरुत्तरजोगसिद्धि(द्धी )ए । ए ग्यांन एहवुं दृष्ट वस्तु तत्त्वनुं निरूपक कहियै, ए ग्यांन छतें सुभ व्यापारनी निष्पति होई, संज्ञान आलोचनें करी ते ते अनुबंधना देखवाथी योग्य प्रतिपत्तियें करी प्रधान, प्रस्तुत प्रवत्तिनें विषें भाव ते सदंतःकरण - लक्ष प्रवर्त्तक छे, मोहे नही, प्रायें अधिकृत प्रवत्तिनें विषे भला उपाय जोग थकी विघ्न न होई असुभकर्मभावें, निरनुबंध सुभकर्मनें सानुबंध सम्यक् प्रव्रज्या भोग थकी प्रवति होई, आक्षिप्त क० अंगिकार कर्या ए जोग क० भली प्रवज्याना व्यापार, भाव आराधना थकी जन्मांतर तद ( द ) बहुमानादि प्रकारें करी, ते वर्ज्या व्यापार थकी सम्यक् वर्ते नियम, निष्पादिकपणें करी अनाकुल थको इष्टनिष्पादन करें, ए उक्त प्रकारें क्रिया ते सुक्रिया होई, सम्यक् ज्ञान थकें उचित - प्रारिभि, एकांतई कलंकरहित निरतिचारपणें करी, निकलंक कार्य जे मुख्य तेहनी साधनारी, तथा सुभ अनें सुभ अनुबंध छें जेहनो एहवी, अव्यवच्छेदें करी उत्तरोत्तर जोगसिद्धियें करी । तओ से साहइ परं परत्थं सम्मं तक्कुसले सया तेहिं तेहिं पगारेहिं साणुबंधं, महोद बीजबीजादिझवणेण, कत्तिविरिआइजुत्ते, अवंझसुहचिट्ठे, समंतभद्दे, सुप्पणिहाणाइहेऊ, मोहतिमिरदीवे, रागामयविज्जे दोसानलजलनिही, संवेगसिद्धिकरे हवइ अर्चितचिंतामणिकप्पे । स एवं परंपरत्थसाहए तहा करुणाइभावओ अणेगेहिं भवेहिं विमुच्चमाणे पावकम्पुणा, पवमाणे अ सुहभावेहिं अणेगभविआए आराहणार पाउणइ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ सचुत किच्चं विहूअरबावजापरिपालणा प्रधान सत्या सव्वुत्तमं भवं चरमं अचरमभवहेउ अविगलपरंपरन्थनिमित्तं । तत्थ काऊण निरवसेसं किच्चं विहूअरयमले सिज्जइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइति । पवज्जापरिपालणा सुत्तं ॥४॥ ते सुभानुबंध सुक्रियाथी ने(ते) प्रवज्यावान् साधे प्रधान सत्यार्थ प्रति सम्यक्-अविपरीत परार्थसाधननई विषई निपुणः, सर्वकाल, ते ते बीजबीजन्यासादि प्रकारे करी अणुबंधसहित पर(रा)र्थ प्रति, ए महोदयवान् परम्परार्थसाधन थकी बीज ते सम्यक्त्वबीज, बीज ते सासनप्रसंसादिक, ते बीजादि स्थापवें करी परम्परार्थ प्रति समग्र वीर्यादिसहित परम्परार्थ प्रति अवंध्य छै . सुभ चेष्टा जेहनी, सर्वाकारसंपन्नपणे करी समंतभद्र, सुप्रणिधानादिकनो हेतु क० कारण अन्यूनपणै, मोहांधकार टालवाने स्वभावें करी दीप सरिखो, रागरूप रोगनो वैद्य चिकित्सासमर्थयोगई करी, द्वेषरूप अग्निने समुद्र सरिखो तद्विध्यानशक्तिभाव थकी, संवेगसिद्धिकर होई तत्कारणभोगें करी, अचिंत्यचितामणि सरिखो सत्त्वसुखकारणपणे करी, ते-अधिकृत प्रव्रज्यावान् एणे प्रकारें धर्मदांने कंरी परम्परार्थनो साधक प्रधानभव्यपणे करी, तथा करुणादिभाव थकी अनेक जन्में करी पापकर्म जे ज्ञांनावरणीयादिक तेणें मुंकातौ थकौ, प्रकर्षे वर्द्धमान संवेगादिक-सुभभाव छई परमार्थिक, अनेक-भविक आराधनायें करी पामई सर्वोत्तम भव तीर्थंकरादिकनो छेहलो भव मोक्षनो कारण, अविकल परम्परार्थनों कारण अनुत्तर पुण्यसंभार सद्भावें करी, ते भवनें विर्षे महासत्त्वोनें योग्य समस्त कार्य करीनें, बद्ध्यमांन-प्राक्बद्ध-कर्मे रहित थको, विवहारथी सामान्य अणिमादि अइंस्वर्ग(शय)नई पामइं, केवली होई, भवोपग्राही कर्मे मुंकायै, सर्वथी कर्मनो नास करें, सर्व दुक्खनो अंत करें सदा पुनर्भवना अभाव थकी, तत्त्वतः । प्रव्रज्या-परिपालना-सूत्रं समाप्तं ॥४॥ स एवमभिसिद्धे,परमबंभे, मंगलालए, जम्मजरामरणरहिए, पहीणासुहे, अणुबंधसत्तिवज्जिए, संपत्तनिअसरूवे, अकिरिए, सहाव संठिए, अणंतनाणे, अणंतदंसणे । से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे, अरूवी सत्ता, अणित्थंथसंठाणा, अनंतविरिआ, कयकिच्चा, सव्वाबाहविवज्जिआ, सव्वहा निरविक्खा, थिमिआ, पसंता । असंजोगिए Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनुसन्धान ४२ एसाणंदे, अउ चेव परे मए । ते प्रस्तुत [प्रव्रज्याकारी इंणे सुख परम्परा-प्रकार करी अभिसुध(सिद्ध) थको, परमब्रह्म सदा निरुपद्रवपणे करी, मंगलनो ग्राहि(गृह)गुणोत्कर्षयोगें करी, जन्मजरामरणे रहित कर्मनिमित्तनें अभावे करी, एकांते प्रक्षीण , अशुभ, अनुबंधशक्तियें रहित अशुभ आश्रीनें, पांम्यौ छै आत्मसरूप केवल जीव, गमनादि क्रियासून्य, यथोक्तं- "स्थितः शीतांशुवज्जीवः प्रकृत्या भावशुद्धया। चंद्रिकावच्च विज्ञानं, तदावरणमभ्रवत् ॥" स्वभाव जे ग्यांनादिक तेने विर्षे रह्यौ, अनंतनाणी ज्ञेयना अनंत, अनंतदर्शनी, ते सिद्धने शब्द नही, रूप नहीं, गंध नहीं, रस नहीं, स्फरसन नहीं, ए तौ पुद्गलना धर्म छे ते माटे, रूपरहित सदभाव सत्ता , ग्यांननी परें, जे अरूपणी सत्तानो अनित्थंस्थसंस्थान छ, अनंतवीर्या प्रकृतियें ज प्ररूपणी सत्या छै, कृतःकृत्या कार्यनिष्पादिने करी द्रव्य थकी, सर्व आबाधाई वर्जित, सर्वथा निरपेक्षत वृतिने नासें करी, स्तिमिता सुखना प्रकर्षथी अनाकुला, प्रसांत तरंगरहित महोदधितुल्या, संजोगरहित ए आणंद सुखविसेष, पुद्गल संजोगे रहित, एटला माटें ज निरपेक्षपणा माटें उत्कृष्टो मांन्यो। अविक्खा अणाणंदे । संजोगो विओगकारणं । अफलं फलमेआओ। विणिपायपरं खु तं, बहुमयं मोहाओ अबुहाणं, जमित्तो विचा व )ज्जओ, तओ अणत्था अपज्जवसिआ । एस भावरिऊ परे अऊ परे अओ वुत्तो उ भगवया । एसा जिणाणा (?)। अपेक्षा ते आनंद नहीं औत्सुक्य-दुक्खपणा थकी, संजोग ते विजोगनुं कारण छै-संजोगनें अंतें विओग होइं ए स्वभाव छै ते माटई, ए संजोगथी जे फल ते अफल जांणवं, ते संजोगिक फल ते अवस्य पतनीयसील छै, अज्ञान थकी ए फल बहुंमत कमांनु मूर्खजनोनै बहुमत छै, जे माटें अज्ञान थकी अफलने वि फलबुद्धि एहवो विपर्यय होइं, ते विपयर्यथी घणा अनर्थ होई असत्प्रवृत्तियें करी, ते अनर्थ सानुबंधपणे करी अपर्यवसित क० अंतररहित छै, ए अज्ञान ते उत्कृष्टो भावरिपु छे, एटला माटें ज कह्यौ भगवंत तिथंकरइं यथोक्तं- "अण्णाणतो रिऊ अण्णो पाणिणं णेव विज्जइ ।" नागासेण जोगो एअस्स । से सरूवसंठिए । नागासमण्णस्थ, न Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ सत्ता सदंतरमुवेइ । अचिंतमेअं केवलिगम्मं तत्तं । निच्छयमयमेयं । विजोगवं च जोगोत्ति न एस जोगो, भिण्णं लक्खणमेअस्स । न इत्थाविक्खा, सहावो खु एसो अणंतसुहसहावकप्पो । उवमा इत्थ न विज्जइ । तब्भावेऽणुभवो परं तस्सेव । आणा एसा जिणाणं सव्वणूणं अवितहा एगंतओ । न वितहत्ते निमित्तं । न वाऽनिमित्तं कज्जंति । एसा जिणाणा( ? ) निइंसणमित्तं तु नवरं - आकास संघातै सिद्धनो संयोग नथी । ते सिद्ध तो पोताना स्वरूपनें विषे संस्थित छ । आकास ते बीजा आधारने विर्षे नथी । इहां युक्ति-सत्ता ते सदंतर प्रतें न पामें । ए प्रस्तुत स्वरूप ते अचिंत्य छई, एहनौ तत्त्व ते केंवलीगम्य छे । ए निश्चयनयनो मत जाणवो । विवहारनयमतें तो संजोग छतें पण तत्-संजोग-शक्तिना क्षय थकी असंजोग ज युक्त छै । इहां युक्ति छ 'वियोगवांश्च योग इति कृत्वा' - जोग ते विजोगवंत होइं एटला माटें, ए संजोग सिद्ध आकास नहीं, ए संजोगनों भिन्न छै लक्षण-स्वरूप । ए संजोगनें विषइं सिद्धने अपेक्षा नथी । ते सिद्धनों एहज स्वभाव । अनंत सुखस्वभाव सरिखो कर्मक्षयई व्यंग क० प्रगट, ए सिद्ध सुखनै वि उपमा नथी, यथा- "स्वयंवेद्यं हि तद् ब्रह्म कुमारी स्त्रीसुखं यथा । अयोगी न विजानाति, सम्यक् जात्यं वच्चतं(?) ॥१॥ " ते सिद्ध सुखना भावनें विर्षे अनुभव छे, पण एटलो विशेष छे जे ते सुखनो अनुभव सिद्धनें ज छ । ए भगवंतनी आज्ञा-वचन छइं सर्वज्ञोनी, साची छे एकांतपणे जिनाज्ञा, असत्यनुं निमित्त रागादिक तेना अभावथी, यथा- "रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतं । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥१॥ कारण विना कार्य न होई ए पण जिनाज्ञा, ए रीतें सिद्धसुख ते स्वसंवेद्य छई । दृष्टांतमात्र छै एटलो विशेष सव्वसत्तुक्खए सव्ववाहिविगमे सवत्थसंजोगेणं सव्विच्छासंपत्तीए जारिसमेयं इत्तोऽणंतगुणं तं तु भावसत्तुक्खयादितो । रागादओ भावसत्तू, कम्मोदया वाहिणो, परमलद्धीओ उ अट्ठा, अणिच्छेच्छा इच्छा । एवं सुहुममेअं, न तत्तओ इअरेणगम्मइ, जइसुहं व अजइणा, आरुग्गसुहं व रोगिणत्ति विभासा । अचिंतमेयं सरूवेणं । साईअपज्जवसिअं SASADHURMIRAM एगसिद्धाविक्खाए । पवाहओ अणाई । ते वि भगवंतो एवं, तहा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुसन्धान ४२ भव्वत्ताइभावओ । विचित्तमेअंतहाफलभेएणं । नाविचित्ते सहकारिभेओ। तदविक्खो तउत्ति अणेगंतवाओ तत्तवाओ । स खलु एवं । इहरहेगंतो। मिच्छत्तमेसो । न इत्तो ववत्था । अणारिहमेअं । संसारिणो ओ सिद्धत्तं । नाबद्धस्स मुत्तिात्ती) सद्दत्थरहिआ । अणाइमं बद्धो (बंधो) पवाहेणं अईअकालतुल्लो । अबद्धबंधणे वा मुत्ती पुणो बंधपसंगओ । अविसेसो अ बंधा बद्ध?) मुक्काणं । अणाइजोगे वि विओगो कंचणोपलनाएणं । सर्व शत्रुनें क्षयें, सर्वव्याधिनई नासई, सर्वपदार्थनई मिलवई, सर्व इच्छानी प्राप्तिई, जेहq ए सुख होइं, एह थकी अनंतगुणुं सिद्धनुं सुख जाणवू, भावशत्रुना क्षय थया थकी, आदि शब्दात् भावव्याधिना क्षय थकी । राग द्वेष मोह जीवनें अपकारीपणा माटें भावशत्रु जांणवा, अनें कर्मना उदय ते जीवनें पीडा करवा थकी व्याधि, उत्कृष्टिओ जे लब्धिओ ते परा हेतुपणे अर्था क० अर्थ छई, सर्वथा इच्छानी निवृत्तिई अणिच्छा इच्छा छे जिहां । एणे प्रकारें सूक्ष्म ए सुख प्रति परमार्थ थकी न पांमियइ सिद्ध विनां बीजें जीवें दृष्टान्तसाधुना सुख प्रतें असाधु न पांमे, जे माटें साधुसुख ते विसिष्ट क्षयोपसमभावें वेदवा जोग्य छे ते माटें । निरोगीना सुख प्रति जिम रोगी न पांमें, रोगादिकनें अभावें आरोग्यसुख पांमें ते माटें । ए विभाषा करवी । उक्तं च- "रोगाईणमभावे, जं होइ सुहं तयं जिणो मुणइ । णहि सण्णिवायगही(हि)ओ, जाणइ तदभाव जं सोक्खं ॥" सर्वथा ए सुख स्वरूपें अचिंत्य ,, बुद्धिनें अविसयपणा थकी। एक सिद्धनी अपेक्षाई [सादि अपर्यवसित छई।] प्रवाह थकी अनादि अनंत छइं । ते भगवंत-सिद्ध पण इमज एक सिद्धनी अपेक्षायें सादि अनंत, प्रवाहनी अपेक्षाई अनादि अनंत, तथाभव्यत्वादि भाव थकी । तथाभव्यपणुं ते तथाफलपरिपाकी छै विचित्र छे ए तथाभव्यत्वादिक । तथा कालादिक भेद भावी फलभेदें करी अपवित्र, तथा भव्यत्वादिकनें वि सहकारीनो भेद न होई, ते सहकारीनो भेद ते तेनी अपेक्षाई छे, विचित्र भव्यत्वादिकनी अपेक्षाई छ, तदतत्स्वभावत्वे तदुपनिपाताभादिति । अनेकांतवाद ते तत्त्ववाद छै, सर्वकारण सामर्थना कहिवा थकी । ते अनेकांतवाद निश्चें इणे प्रकार छै तथाभव्यत्वादि भावें । तथाभव्यत्वादिकनें अभावें एकांतवाद छ । ते एकांतवाद ते मिथ्यात्व छइं । ए एकांतवाद थकी विवस्था नथी । 'भव्यत्वाभेद-सहकारिभेदस्यायोगात् Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ तत्कर्मताभावात् कर्मणोपि कारकत्वात् अतत्स्वभावस्य च कारकत्त्वासंभवादिति भावनीयं' । ए एकांतनुं आश्रयण ते अजुक्त छै । संसारीनें ज सिद्धपणुं होई अन्यनें न होई । अबद्धनें तात्विकी मुक्ति न होइ, बंधनें अभावें शब्दार्थरहित छें । प्रवाहे अनादिमांन बंध छें अतितकाल सरखो छे । अतितकाल पण प्रवाहें अनादिमंत छें । अबंधने बंधन छतें प्रथम मुक्तिनो अभाव होइ, पुनर्बंधना प्रसंग थकी । अबंधत्व हेतुयें करी अबंध (अबद्ध) अने मुक्तनें विषई विसेष नथी । जीव कर्मनो अनादि-जोग छें तो पण तेनो विजोग अविरुद्ध ज छें, कंचन पाषांणनें दृष्टांतें । लोकनें विषं तेम देखीइं छै । न दिदिक्खा अकरणस्स । न यादिठ्ठमि एसा । न सहजाए निवित्ती । न निवित्तीए आयद्वाणं । न य अण्णा तस्सेसा । न भव्वत्ततुल्ला नाएणं । न केवलजीवरूवमेअं । न भाविजोगाविक्खाए तुल्लत्तं, तदा केवलत्तेण सयाऽविसेसाओ । तहासहावकप्पणमपमाणमेव । एसेव दो | सो परिकप्पिआए । परिणामभेआ बंधाइभेओत्ति साहू, सव्वनयविसुद्धीए निरूवचरिउभयभावेणं । न अप्पभूअं कम्मं । न परिकप्पिअमेअ । न एवं भवाइभे | ओ] । न हेउफलभावो । तस्स तहासहावकप्पणमजुत्तं । निराहाराऽन्नयकओ निओगेणं । तस्सेव तहाभावे जुत्तमेअं । सुहुममद्वपयमेअं । विचितिअव्वं महापण्णाएत्ति । ३५ इंद्रियरहितनें दिदृक्षा कहतां जोवानी इच्छा होयें नही । अद्रिष्टनें विषे दिदृक्षा होई नही । साथै उपनी जे दिदृक्षा ते निवृत्ति होई नहीं । चेतन्यनी परें दिदृक्षानी निवृत्ति छतें आत्मानें स्थानक नही, ते तेथी अव्यतिरेकपणा माटें । व्यतिरेकें आत्मानी दिदृक्षा न होई । भव्यत्वने तुल्य दिदृक्षा नथी, न्यायें करी । केवलजीवरूप भव्यत्वपणुं नथी, अनें दिदृक्षा तो केवलजीवरूप हैं । भावी योगनी अपेक्षाइं महदादिभावें दिदृक्षानें भव्यत्व साथे तुल्यपणु नथी, भावी योगनें अभावै तिवारें केवलपणा संघातें सदा अविसेस छें । तथा सांसिद्धिकपणा करी ते थकी उपरें पण दिदृक्षानी आपत्ति छई, कैवल्यनें अविसेषें । दिदृक्षाना भाव - अभाव स्वभावनुं कल्पबुं ते अप्रमाण ज छें । आत्माथी तेनें भेदनी आपत्ति होई ते माटें । एहज प्रमाणाभावलक्षण दोष परिकल्पित दिदृक्षा मांनें छत्तें, अनें आत्माना परिणामभेद थकी बंधमोक्षादिकनो Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४२ भेद ए साधु क० प्रमाणिक छई । सर्वनय-विसुद्धियें करी उभयभाव क० प्रस्ताव थकी अबंधमोक्षभावें निरुपचरित छै । आत्मभूत कर्म नथी, एटलें बोधलक्षण कर्म नहीं । ए कर्म परिकल्पित अवतुं (? आवतुं ?) नथी वासनादिरूप, आत्मभूत कर्म परिकल्पें थकें बोधमात्रनें सामान्य करी क्षणभेद छे ते पण मुक्तक्षणभेदनी परें भव-मोक्षनो भेद नही होइं । भवनो अभाव ते ज-संतानोच्छेदरूप सिद्धी नही । संतांननो उच्छेदें तेहनो अनुत्पाद नही एटलें उत्पाद ज होय । एणी रीतें समंजसपणुं नही न्यायोपपन्न । एणे प्रकारे संसार अनादिमंत नही, कचित् ज संतान थकें उत्पत्ति छे ते माटें । तथा चरम आद्य क्षणनें कारणकार्यभाव नथी, ते माटें हेतुफलभाव नही । तेहनें तथास्वभावकल्पवू ते अजुक्त छ, निराधार अनव्यय(अन्वय) को अवस्यपणई । तेहनो ज तथाभाव छे-तथास्वभावनुं कल्पq युक्त छै । ए सूक्ष्म अर्थपद छे, भावगम्यपणा माटें । महाप्रज्ञाई चितव, अन्यथा जांणी सकीयई नहीं ते माटें । अपज्जवसिअमेवं सिद्धसुक्खं । इत्तो चेवुत्तमं इमं । सव्वहाणुस्सुगत्ते अणंतभावाओ । लोगंतसिद्धिवासिणो एए । जत्थ य एगो तत्थ निअमा अणंता । अकम्मुणो गई पुव्वपओगेणं अलाउप्पभिईनायओ । नियमो अओ चेव । अफुसमाणगईए गमणं । उक्करिसविसेसओ इयं । इणि रीतें-उक्त विधियें सिद्धसुख ते अपर्यवसित छई । एटला ज माटें ए सुख ते उत्तम छै । सर्वथा उत्सुकरहितपणुं छे ते अनंतभाव छे ते माटै । चउद राजलोकनें अंतें जे प्रसस्त क्षेत्ररूप सिद्धि छे, तेमां वासी ए सिद्ध छे । जे क्षेत्रे एक सिद्ध छे ते क्षेत्रे नियमा अनंत सिद्ध छे । यथा"जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अण्णोण्णमवाबाहं चिटुंति सुही सुहं पत्ता ॥१॥" कर्मरहित सिद्धनी गति इहांथी लोकंत सुद्धी पुर्वप्रयोगहेतुयें छे, तत्स्वभावपणा माटई, तुंबडा प्रमुखना दृष्टांतथी । प्रभृतिग्रहणात् एरंडफलादिक पण । एहज तुंबडादि दृष्टांतथी उर्द्धवासनो नियम छ । अस्पृस्यमांन गतियें गमन , सिद्धनो सिद्धिक्षेत्र प्रतई । उत्कर्ष विसेस थकी ए अस्पृस्यमांन गति संभवें छई । अव्वुच्छेओ भव्वाणं अणंतभावेणं । एअमणंताणंतयं । समया इत्थ नायं । भव्यत्तं जोगयामित्तमेव केसिंचि, पडिमाजुग्ग दारुनिदंसणेण । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २००७ ३७ ववहारनयमेअं । एसो वि तत्तांग( तत्तंग )पवित्तिविसोहणेण अणेगंतसिद्धीओ निच्छयंगभावेण । परिसुद्धो उ केवलं । भव्यजीवनो विवच्छेद नथी, अणंतनो भाव छे ते माटें । ए भव्यर्नु अनंतु अनंतानंत कहें छे, युक्त अनंतकादिक नथी, एटला माटें भव्यनो क्षय नथी । इहां समया क० काल ते दृष्टांत छे । एणे प्रकारे भव्यपणं ते सिद्धि प्रतें केटलाइक प्रांणीने योग्यतामात्र ज छे, पण सिद्धसे नही । प्रतिमाजोग्य काष्ट दृष्टांते । जिम काष्टनी सरखी निस्पृ(स्प)ति छते ए काष्ट प्रतिमाजोग्य होई, गांठ प्रमुख रहितपणे, अनें बीजं काष्ट गंठीलुं माटें प्रतिमाजोग्य नही ए दृष्टांत । ए विवहार नयनो मत छे । ए व्यवहारनय पण परमार्थनो अंग छे । व्यवहारनयमतें प्रव्रज्यादि प्रदान थकी परलोक-प्रवृत्ति-विसोधनें करी । ए प्रकारे अनेकांतसिद्धि । ते माटें निश्चयनो व्यवहार ते अंग छे । एवं प्रवृत्तिइ अपूर्वकरणादिकनी प्राप्ति होय ते माटे परिसुद्ध तो केवल आज्ञापेक्षी पुष्टालंबन खें । एसा आणा इह भगवओ समंतभद्दा तिकोडिपरिसुद्धीए अपुणबंधगाइगम्मा । एअप्पिअत्तं खलु इत्थ लिंगं, उचितपवित्तिविनेअं, संवेगसाहगं निअमा । न एसा अण्णेसिं देआ । लिंगविवज्जयाओ तप्परिण्णा । तयणुग्गहट्ठयाए आमकुंभोदगनासनाएणं । एसा करुणत्ति वुच्चइ एगंतपरिसुद्धा अविराहणाफला तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्सेअससाहिगत्ति । पवज्जाफलसुत्तं ॥५॥ ए आज्ञा इहां भगवंतनी उभयनययुक्त छे, सर्व प्रकारें निर्दोष छे भगवंतनी आज्ञा कस-छेद-तापरूप त्रिकोटी-परिसुद्धियें करी । ए भगवंतनी आज्ञा अपुनर्बंधक तथा मार्गाभिमुख जीवें पामवा जोग्य छे, संसाराभिनंदी जीवे गम्य नथी । आज्ञाप्रियपणुं ते अपुनबंधकादिकनुं लिंग छे, अ(आ)ज्ञाप्रियपणुं पण उचित प्रवृत्ति क० तदाराधन-तद्बहुमान थकी जांणवू; जेहनें भगवंतनी आज्ञा प्रिय छे तेहने नियमा संवेग होयें । जे माटें एहवी छे ते माटें अन्य संसाराभिनंदी भणी न देवी । लिंगविपर्यय जे संज्ञानद्वैषादि लक्षण ते थकी संसाराभिनंदी जाणीइं । अपुनर्बंधकना लिंग थकी भवाभिनंदीनां लिंग विपरीत होइ । उक्तं च-"क्षुद्रो लोभरती(ति)ीनो, मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान 42 भवादिनंदी स्यानिःफलारंभसंगतः // " ते संसाराभिनंदी जीवना अनुग्रहने अर्थे आज्ञा न देवी / काचा कुंभमां पांणी भरवू ते दृष्टांतें / " आमे घडे निहत्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ / इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ / / " इति एसा करुणां कहिइं / अयोग्यनें भगवंतनी आज्ञा न देवी / भगवंतनी आज्ञा ते एकांते परिसुद्ध छइं, पापपरिहारें करी / एटला माटें ज आज्ञानुं फल ते अविराधना छ, सम्यक् आलोचवें करी / एहवी जे आज्ञा ते त्रिलोक नाथ]जे भगवंत, तेनो जे बहुमान, तदरूप जे हेतु, तेणें करीनई निःश्रेयस जे मोक्ष तेनी साधनारी छै, पमाडनारी छै | प्रव्रज्याफलसूत्रं समाप्तं / सूत्र 5 / / समाप्तं पंचसूत्रं नाम प्रकरणं कृतं चिरंतनाचार्यै: विवृतं च वा(या)किनीमहत्तराधर्मसूनु श्री हरिभद्राचार्यैः // इति श्रीपंचसूत्रनाम प्रकरणं समाप्तं / / लि. कृतं वेलजीभारमल: // कच्छ कोडायगांमे संवत 1958 नां श्रावण सुद 8 //