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अनुसन्धान ४२
स तात )मवेइ सव्वहा । तओ सम्म निउंजइ ।।
ए सूक्ष्मबुद्धिगम्य ते समान , पाषाण कनक जेहनें एहवउं, समान छे शत्रु मित्र जेहनई, मट्युं छे कदाग्रहनुं दुख जेहनई एहवउ, प्रसमसुखें सहित, सम्यक् ग्रहणासेवनरूप शिक्षा ग्रहई, गुरुकुलवासी-गुरुकुलमा निमग्न, चित्तवृत्तिई गुरुप्रतिबद्ध, गुरुबहुमानथी, विनीत बाह्य विनयई, भूतार्थदर्शी नथी गुरुवासथी हिततत्त्व इंम मांनइं, सुश्रूषादिक गुणइं संयुक्त,तत्त्वनें विर्षे अभिनिवेश छई जेहनइं, विधिमां तत्पर, रागादि विषनो परममंत्र इंम जांणी पाठे श्रवणें करी भणई सूत्र प्रति, अनुष्टेय प्रति बांध्यं छे लक्ष्य जेणइं,आसंसाइं विप्रमुक्त, मोक्षार्थी, एहवो ते सूत्र प्रति जाणे यथातथपणई, जांणवाथी सम्यक् सूत्रने आत्मार्थ साधनपणे जोडें ।
एअं धीराण सासणं । अण्णहा अणिओगो, अविहिगहिअमंतनाएणं । अणाराहणाए न किंचि, तदणारंभाओ धुवं । इत्थं मग्गदेसणाए दुक्खं, अवधीरणा, अप्पडिवत्ती । नेवमहीअमहीअं, अवगमविरहेणं । न एसा मग्गगामिणो । विराहणा अणत्थमुहा, अत्थहेऊ, तस्सारंभाओ धुवं । इत्थ मग्गदेसणाए अणभिनिवेसो, पडिवत्तिमित्तं, किरिआरंभो । एवंपि अहि ही )अं अहि ही )अं, अवगमलेसजोगओ ।
ए महावीरादिक धीर पुरुषोनुं शिक्षाकरण छै । अविधिइं अध्ययन करवें विपर्यय, अविधिगृहीत मंत्रने दृष्टांतइं, अनाराधनाई करी इष्ट वा अनिष्ट फल नही, परमार्थथी साधनना अनारंभपणा माटें निश्चयें । अनाराधनाने विषई लिंग देखा? 2 - तात्त्विक देशना सांभलतां अना-रा(अनाराधना) कर्मानई मनाग् लधुतर कर्माने अद(व)हीलना थाई, दुख न थाय तेथीयें लघुकर्माने अप्रतिपत्ति थाय, अवधीरणा न थाय, नही इंम भण्यु भण्यु कहीयें सम्यक् - अवबोध विना, नही ए विराधना मार्गगामि जीवनें, एकांते अनाराधना अध्ययननी उन्मादादिकें अनर्थमुखा, गुरुतर दोषनी अपेक्षायें अर्थ-हेतु छे, मोक्षगमनना ज आरंभथी निश्चयें, ए विराधना छतां तात्त्विक देशनामां सांभलतां अनभिनिवेश होय, हेयोपादेय आश्री सम्यग् विराधका प्रतिपत्तिमात्र होय, अनभिनिवेश थाय अल्पतर विराधकनें, क्रियारंभ थाय प्रतिपत्तिमात्र नही, इंम पण विराध[कने अधीत सूत्र अधीत कहीयें भावथी, स्यां माटें, सम्यग्
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