Book Title: Nyayaratna Darpan
Author(s): Shantivijay
Publisher: Bhikhchand Bhavaji Sakin

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Page 12
________________ न्यायरत्नदर्पण. ~~~~~~~~~~~~~~~~ इस मजमूनको पेंश किया है कि अगर आप ऊत्सूत्रमरुपणाको छोडे और शुद्ध प्ररुपणा करना मंजुर करेंगे तो आपकोभी गुरु मानुंगा, मेने इस लेखमे धर्मरागसे जो कुछ सख्त लेख लिखा है उसके वास्ते माफी चाहता हुं. __ (जवाब) यह आपकी सजनता है, में किसी बातसे नाराज नही, मेरी उत्सूत्रप्ररुपणा कौनसी थी, बतलाना था, विना बतलाये कहना लाजिम नही, मेने मेरे लेखमें लिखा था कि-अधिक महिना चातुर्मासिक, वार्षिक और कल्याणिकपर्वके व्रत नियममें गिनतीमें नहीं लेना सो ठीक है. आपलोगभी जब दो आषाढ आते है तो पहले आषाढमें चौमासा नहीं बेठाते, और कल्याणिकपर्वके व्रतनियमभी दो दो दफे नहीं करते. फिर बात क्या हुई ? दरअसल! बात वही हुई जो में कहताथा, मुजे कोई गुरु माने या न माने. उनकी मरजीकी वात है. में इस बातसे नाराज नही. [जवाब-जहोरी दलिपसिंहजीके सात सवालोका.] फिर जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके पृष्ट (१२)पर लिखा है कि अब कृपा करके नीचे लिखे प्रश्नोका उत्तर शिघ्रतासे जैनपत्रमें दिजियेगा. (जवाब ) चाहे जैनपत्रमें दुं या अलग हूँ मेरी मरजीके ताल्लुक है, कहिये आपके सवाल क्या है ? सवाल-सूर्य प्रज्ञप्ति टीकाकी गाथा "अहजइ” इत्यादि और उमास्वातिजीका वाक्य-क्षयेपूर्वा इत्यादि ये दो प्रमाण आपने छपवाये है उसका खुलासा शास्त्रोके नाम प्राभृत-अध्ययन-पृष्ट प्रमुखसहित जिसजगहके हो सो लिखीयेगा. __ (जवाब ) महाराज ऊमास्वातिजीके वाक्यका पुरासबुतः इसकितावकी शुरुआतमें देचुका हुं. सूर्यप्रज्ञप्तिकी वृत्तिकी गाथाके

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