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न्यायरत्नदर्पण.
था, ऊनको बतलाना लाजिमथा, सौं न बताकर इसी छापेमें आप लिखते है, किसी जैन पुस्तकालयसे मंगाकर देखिये, उसको मंगबाना और देखना आपका फर्ज है, सो लिखना अनुचित है. इतने बडे ज्योतिष ग्रंथ देखनेकी मेरी योग्यता नही. दोयम ! यह सूत्र मंगवानेसे मुजे कोई भेजभी नही सकता, आगे यह भी लिखा है कि- इतने बडे गहनार्थसूत्रके देखनेकी मुजे आज्ञा आपने किस आधारसे दिई ?
( जवाब ) इतने बडे सूत्रकी टीका देखनेकी आज्ञा मेने इस आधारसे दिइ कि - श्रावकोंकों टीका और भाषांतर देखनेका हुकम है. हां ! मूलसूत्र के पाठकों बाचनेका हुकम नहीं. यह सूत्र आप अगर किसी जैन पुस्तकालयसें मंगवाते तो भेजनेवाले भेजभी सकते थे. आपको इन बातोंको देखने का शौख था, इस लिये मेरा लिखना अनुचित नही था.
फिर जहोरी दलिपसिंहजी ने अपनी किताबके पृष्ट (९) पर लिखा है आप अपने (२७) जुलाईके लेखका जवाब मुजसे छापेद्वारा मांगते है, सो अगर में आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता तो आपका लिखना ठीक था, मेने तो अपनी शंका निवर्तनके लिये पुछा था. आगे (१०) मे पृष्टपर आपने लिखा है, आपके लेखका जबाब शास्त्र प्रमाणसे श्री जयचंद्रजीगणी देनेको तयार है.
( जवाब ) तयार है तो अछी बात है बजरीये छापेके देवे, आगे आपने तेहरीर किया है कि सवाल जवाब एकही छापेमें छपे तो ठीक है. जवाबमें मालुम हो अखबार के मालिक अपने अपने अखबार के लिये स्वतंत्र है, चाहे किसीका लेख छापे या न छापे उनकी मरजीकी बात है, जिसके देखने में जवाब नही आयगा वे महाशय तलाश करके ऊस छापेकों मंगवा लेयगें.
आगे जहोरी दलिपसिंहजी ने अपनी किताब के पृष्ट ( १२ ) मे पर