Book Title: Niyam Sara Author(s): Vijay K Jain Publisher: Vikalp View full book textPage 8
________________ Niyamasāra नियमसार यही कारण है कि इस ग्रन्थराज में अनेक ऐसी-ऐसी महत्त्वपूर्ण बातें बताई गई हैं, जो मोक्षमार्ग के साधकों का विशेषरूप से मार्गदर्शन करती हैं। जैसे - णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी । तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ॥१५६॥ अर्थ - जीव नाना प्रकार के हैं, कर्म नाना प्रकार के हैं और लब्धियाँ भी नाना प्रकार की हैं, इसलिये साधर्मियों और परधर्मियों के साथ वचन-विवाद छोड़ देना चाहिये। लभ्रूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ॥१५७॥ अर्थ - जैसे कोई व्यक्ति निधि को प्राप्त करके उस निधि का फल अपने देश में (एकान्त में) अनुभव करता है (भोगता है), उसी प्रकार ज्ञानी पर की चिन्ता छोड़कर अपनी ज्ञाननिधि को भोगता है। ईसाभावेण पुणो केई जिंदंति सुंदरं मग्गं । तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ॥१८६॥ अर्थ - पुनः कई पुरुष ईर्ष्याभाव से सुन्दर मार्ग की निन्दा करते हैं। उनके वचन सुनकर जिनमार्ग के प्रति अभक्ति मत करो। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उक्त सभी दिशा-निर्देश मुक्तिमार्ग-साधक के लिए बड़े ही अनमोल दिशा-निर्देश हैं, जिन्हें समझकर वह निर्विघ्न रूप से अपना मुक्तिपथ प्रशस्त कर सकता है। धर्मानुरागी श्री विजय कुमार जैन ने इस ग्रन्थराज 'नियमसार' का सुन्दर संस्करण अंग्रेजी व्याख्या सहित तैयार किया है। वे सदा ही ऐसी आगम-सेवा करते रहते हैं। उन्हें हमारा मंगल आशीर्वाद है। २३) की मार्च 2019 आचार्य विद्यानन्द मुनि कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली (vi)Page Navigation
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