Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 17
________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000Rsonam So0000000000000000000000000000000000000000000 (14) चौदहवें अध्याय में कहा गया है कि "जागो, जागते रहो, जागते क्यों नहीं हों?" परलोक में धर्म प्राप्ति होना कठिन है क्योकि हर बूढ़े बालक सभी को काल हर ले जाता है। कुटुम्बी जनों की ममता में फंसे हुए लोगों को संसार में भ्रमण करना पड़ता है। कृत कर्मों के भोगे बिना मुक्ति नहीं है। जो क्रोधादि पर विजय प्राप्त करते हैं किसी प्राणी का हनन नहीं करते हैं। वही सच्चे अर्थों में वीर है। गृहस्थी में रहकर भी यदि मनुष्य संयम में प्रवृत्त रहता है तो उसे देवगति प्राप्त होती है। अतएव बोध प्राप्त करो। मन को अपने आधीन करो, भाषा सम्बन्धी दोषों का परित्याग करो, समस्त ज्ञान का सार और सारा विज्ञान अहिंसा से ही शुरु होता है और अहिंसा पर ही समाप्त हो जाता है। (15) पन्द्रहवें अध्याय में कहा गया है कि मन अत्यंत दुर्जय है। मन को जीतना बहुत बड़ी उपलब्धि है। मन ही मोक्ष और बंध का कारण है। जिस आत्मा ने मन को जीत लिया, इन्द्रियों को वश में कर लिया, कषायों को बिसरा दिया उसे कोई भी दोष नहीं लग सकता। धार्मिक भावनाओं से मन को यथा स्थान पर ले आना ही सच्चा धर्म है। (16) सोलहवें अध्याय में ब्रह्मचर्य की चर्चा है। किसी स्त्री के साथ एकान्त में खड़ा होना या उससे बातचीत करना, मुनि जीवन के लिए श्रेष्ठ नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई निन्दा करे तो भी मुनि को कोप नहीं करना चाहिए। कोप करने से मुनि भी मूर्ख व्यक्ति की तरह साधारण हो जाता है। पांच कारणों से जीव को शिक्षा नहीं मिलती। वे कारण हैंक्रोध, मान, आलस्य, रोग और प्रमाद / जो इन दुर्गुणों से बच जाता है वही सच्चे अर्थों में संयमी है, मुनि है। (17) सत्रहवें अध्याय में, सदाचार का फल देवगति और असदाचार से भ्रष्ट जीवन को नरकगति का कारण बताया गया है। इस अध्याय को अवश्य पढ़ना चाहिए। इसमें देवगति का भी सुन्दर वर्णन है और अन्त में कहा 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000000000000 DOON निर्ग्रन्थ प्रवचन/14 Naoooooooooooooooook Jain Eucation International boooo0000000 www.jainelibrary.org, For Personal & Private Use Only

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