Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 15
________________ 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooop 00000000000000000000000000000000000000 Joo0000000000000000000000000000 0000000000book 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000064 (6) पुस्तक का छटा तथ्य यह है कि जो वीतराग हैं वे सर्वथा निष्परिग्रही हैं और वे ही गुरु हैं वीतराग द्वारा प्रतिपादित धर्म ही सच्चा धर्म है। इस प्रकार की श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है। परमार्थ का चिन्तन करना, परमार्थ दर्शियों की सेवा करना, मिथ्या दृष्टियों की संगति से बचना, यही एक सम्यक्त्वी के लिए अनिवार्य है। मिथ्यावादी, पाखण्डी, उन्मार्गगामी होते हैं। रागादि दोषों को नष्ट करने वाले वीतराग का मार्ग ही उत्तम मार्ग है। (7) पुस्तक में सातवें पायदान पर पांच महाव्रतों की चर्चा है। ये पांच महाव्रत ही कर्म का नाश करने वाले हैं। पन्द्रह कर्म-आदानों का जो कि सामाजिक साम्यवाद की दृष्टि से अध्ययन योग्य हैं समाज की सलगती समस्याओं के प्राचीनतम समाधान हैं, उन्हें भी जानना आवश्यक हैं। सूर्यास्त के बाद और सूर्यास्त के पहले भोजन आदि की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। असली ब्राह्मण कौन है इसका उत्तर भी पन्द्रहवें अध्याय में दिया गया है। यह प्रकरण अन्धविश्वासी लोगों की भी आंख खोलने वाला है। (8) अध्याय आठ में ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अनेक मार्मिक और प्रभावशाली वर्णन पढ़ने योग्य हैं। (6) अध्याय नौ में विशिष्ट चरित्रों का वर्णन है। कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं। अतः किसी की भी हिंसा करना या उन्हें दुःख पहुंचाना प्रथम दृष्टया पाप है। सच्चा साधु इसका हर पल स्मरण रखता है। एक सच्चा साधु आदर सत्कार में अपना गौरव नहीं समझता और अनादर में क्रुद्ध भी नहीं होता। किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं करना, निर्भय और निष्कम्प रहकर मुक्त भाव से विचरना, यही साधु की श्रेष्ठता का प्रमाण है। (10) दसवें बिन्दु में कहा गया है कि आज नहीं कल कर डालेंगे, ऐसा विचार करना प्रमादी जीवों का लक्षण हैं। 500000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/12 000000000000000 1000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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