Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 14
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 300000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 - निमित्तों को पाकर अपना कार्य करें। जो समय गया सो गया वह वापस लौटकर आने वाला नहीं है। धर्मात्मा का समय ही सफल समय होता है। धर्म वही सत्य समझना चाहिए जिसका वीतराग मुनियों ने प्रतिपादन किया है कि धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। (4) प्रस्तुत पुस्तक में चौथे विषय विश्लेषण में कहा गया है कि आत्मा विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करता रहा है। नरक गति में उसे महान क्लेश भोगने पड़ते हैं। तिर्यंच गति के दुःख भी प्रत्यक्ष ही हैं / मनुष्यगति में भी विश्रान्ति नहीं। इसमें भी व्याधि, जरा, जन्म आदि की प्रचुर वेदनाएँ विद्यमान हैं। देव गति भी अल्पकालीन है / अतः लोक प्रचलित बाह्य क्रियाकाण्ड के विषय को प्रतीक बनाकर भगवान कहते हैं कि तपस्या को अग्नि बनाओ, आत्मा को अग्नि स्थान बनाओ, योग की कड़ची करो, शरीर को ईंधन बनाओ। संयम व्यापार रूप शान्ति पाठ करो तब प्रशस्त यज्ञ होता है। हम सदा स्नान करते हैं, परन्तु वह हमारे अन्तःकरण को निर्मल नहीं बनाता। बाह्य शुद्धि से अतशुद्धि नहीं हो सकती। अतः भगवान कहते हैं कि आत्मा में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले शान्ति तीर्थ धर्मरूपी सरोवर में जो स्नान करता है वही निर्मल विशुद्ध और तापहीन होता है। (5) पुस्तक में पांचवा प्रकरण ज्ञान पर प्रकाश डालता है। कहा गया है कि ज्ञान पांच प्रकार के हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवल ज्ञान / मनुष्य को ज्ञानाचरण करते हुए निर्मम निरहंकार, अपरिग्रही, ठसक का त्यागी, समस्त प्राणियों पर समभावी बनना चाहिए। लाभालाभ में, सुख-दुख में, जीवन-मरण में, निन्दा- प्रशंसा में, मान-अपमान में जो समान रहता है वही सिद्धि प्राप्त करता है। gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000OF OOOOOOK - निर्ग्रन्थ प्रवचन/11 0000000000ood 00000000000006 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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