Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 13
________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g OOOK 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooooot सभी क्षेत्रों की आख्या- व्याख्या स्वयमेव हो जाती है। पाठक निर्ग्रन्थ प्रवचन में यत्र-तत्र इन विषयों की असाधारण झलक देख सकेंगे। ऐसा हमारा विश्वास है। निर्ग्रन्थ प्रवचन: विषय विस्तार निर्ग्रन्थ प्रवचन 18 अध्यायों में फैला हुआ है। इन अध्यायों में विभिन्न विषयों पर अनहद आल्हाद जनक और शान्ति प्रदायिनी सुक्तियाँ संग्रहित हैं। सुगमता से समझने के लिए यहाँ इन अध्यायों में वर्णित विषय वस्तु का परिचय करा देना आवश्यक है:(१) समस्त आस्तिक दर्शनों की नींव आत्मा पर अवलम्बित है अतः संसार में यदि कोई सर्वोत्कृष्ट विजय प्राप्त करना चाहता है तो उसे अपने आप पर सबसे पहले विजय प्राप्त करनी होगी। आत्मा का स्वरूप ज्ञानदर्शनमय है। ज्ञान से जगत के द्रव्यों को और उनके वास्तविक स्वरूपों को देखना-जानना सम्भव है। अतएव आत्मा के विवेचन के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ में नवतत्वों और द्रव्यों का परिचय कराया गया है। (2) जगत के इस अभिनय चक्र में दूसरा भाग कर्मों का है। कर्मों के चक्कर में पड़कर ही आत्मा संसार परिभ्रमण करता है। वैसे जैन दर्शन के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तराय कर्म। इन कर्मों के आधार पर अनेक कर्मों के भेद हैं। अनेक बार आत्मा इन्हीं कर्मों के जंजालों में उलझ कर मुक्ति से भटका है। कर्मों की यह विशेषता है कि इसमें कोई भी किसी का मददगार नहीं बन सकता। जिसका जैसा कर्म है उसे उसी प्रकार का फल भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। (3) तीसरा तथ्य है कि मनुष्य जीवन बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ है। ऐसा दुर्लभ जीवन यदि हमें प्राप्त हुआ है तो हम सद्धर्म की प्राप्ति करके आत्मा के अनुकूल So000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000 D0000000 Do000000000 0000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/10 80000000000000000oll 00000000000000 Jain Education International Por Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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