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परमानन्द को उत्पन्न कर, वीतराग करके, स्वयं निवृत्त होता हुआ, आत्मा को नयपक्षातिक्रान्त करता है; अतः वह पूज्यतम है। इस प्रकार निश्चयनय, परमार्थ का प्रतिपादक होने से भूतार्थ है, इसी का निरन्तर आश्रय लेने से आत्मा, अन्तर्दृष्टिवान् होता है ।'
द्वितीय व्यवहारशुद्धिकथन नामक अध्याय के प्रारम्भ में 'इदानीमुपनयोपजनितो व्यवहारप्रपंच उच्यते' कह कर, उपनय से उपजनित व्यवहार-प्रपंच का वर्णन करते हुए उसके अन्तर्गत प्रमाण के विभिन्न प्रयोग बताते हुए प्रमाण को भी उपनय से उपजनित एवं व्यवहार सिद्ध किया है।
उसके बाद विस्तार से प्रमाण -नय-निक्षेप, उनके लक्षण एवं भेदप्रभेद, नय-प्रमाण में कथंचित् भेदाभेद, द्रव्यार्थिकनय के १० भेद, पर्यायार्थिकनय के ६ भेद, नैगमादि ७ नय, उनके भेद-प्रभेद, प्रत्येक नय की व्युत्पत्ति, उपनय का स्वरूप एवं उसके तीन भेद - सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार और उपचरितव्यवहार, पुनः उनके भेद - प्रभेद तथा निक्षेप का स्वरूप एवं उसके भेद-प्रभेद आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है।
यहाँ यही आश्चर्यकारक एवं विचारणीय विषय है कि उपनय से उपजनित व्यवहार के अन्तर्गत प्रमाण-नय-निक्षेप का समावेश किया गया है। इस सम्बन्ध में निम्न शंका-समाधान उपयोगी है -
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" शंका - प्रमाण का सम्बन्ध उपनयों से कैसे हो सकता है, क्योंकि प्रमाण तो स्वतन्त्र है ? 2
समाधान - प्रमाण का जब व्यवहार के लिए प्रयोग होता है; तब वह 'स्यात् ' शब्द की अपेक्षा रखता है, तभी प्रमाण का उपनयों से सम्बन्ध होता है ।"
1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 26 नय - रहस्य
2. वही, पृष्ठ 31
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