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है। ईसा की चौथी शताब्दी में इसकी रचना देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने की। आगम साहित्य की. दृष्टि से देवर्द्धिगणी का स्थान कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। जैन परंपरा में यह माना जाता है कि आगमों का संकलन एवं संपादन करने के लिए 3 वाचनाएं हुई थीं। प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में भद्रबाहु स्वामी की अध्यक्षता में हुई जिसका समय भगवान महावीर के 170 वर्ष पश्चात् माना जाता है।
द्वितीय वाचना उनके 211 वर्ष पश्चात् मथुरा में हुई और तृतीय 980 वर्ष पश्चात् वल्लभी में हुई। उस समय आगमों को जो रूप दिया गया वह अब तक प्रचलित है।
संस्कृत साहित्य में नंदी शब्द का अर्थ मंगल है। यह "टुनदि समृद्धौ” धातु से बना है उसका यह अर्थ है, वे सब बातें जो सुख समृद्धि देने वाली हैं। संस्कृत नाटकों में सर्वप्रथम नंदी हुआ करती थी, उसके पश्चात् सूत्रधार का प्रवेश होता था । इसीलिए प्रत्येक मंगलाचरण के अंत में लिखा रहता है, नान्द्यन्ते सूत्रधारः । जैन परंपरा में 5 ज्ञानों के विवेचन को नंदी का स्थान दिया है, वह इसकी विशेषता है। इसका अर्थ है, वह ज्ञान के आलोक को सबसे बड़ा मंगल मानती है। जैन परंपरा प्रारंभ से ही गुणपूजक रही है। वहां व्यक्ति में गुणों का आरोप नहीं किया जाता, किन्तु गुणों के आधार पर व्यक्ति पूजा जाता है। ज्ञान का आलोक सबसे बड़ा गुण है, इसीलिए उसे मंगल मान लिया गया। व्यक्ति विशेष की वन्दना के स्थान पर उसी को ग्रंथ के प्रारंभ में रखने की परंपरा चल पड़ी। प्रतीत होता है कि आचार्य देवर्द्धिगणी : के मन में आगमों का अध्ययन प्रारंभ करते समय मंगल के रूप में सर्वप्रथम इसके अध्ययन की कल्पना रही होगी । विशेषावश्यकभाष्य आगमिक ज्ञान का आकर ग्रंथ है। आगम सम्बन्धी ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसकी चर्चा उसमें न आई हो। इसमें भी सर्वप्रथम मंगल के रूप में 5 ज्ञानों की विस्तृत चर्चा है। ज्ञान सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से जैन परंपरा को तीन युगों में विभक्त किया जा सकता है। प्राचीनतम परंपरा - इसका विभाजन 5 ज्ञानों के रूप में करती है। कर्म सिद्धान्त भी इसी का समर्थक है। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म ने दबा रक्खा है । वह ज्यों-ज्यों हटता है, ज्ञान अपने आप प्रकट होता जाता है, इसी को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान आदि के रूप में विभाजित किया जाता है।
द्वितीय युग में इनका विभाजन प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में किया गया। प्रथम दो ज्ञान मति और श्रुत, इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रखने के कारण परोक्ष कहे गए। और अन्तिम तीन ज्ञान अर्थात् अवधि, मनः पर्यव और केवल आत्म मात्र की अपेक्षा रखने के कारण प्रत्यक्ष ।
तृतीय युग में इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मान लिया गया । यह विभाजन अकलंक के ग्रंथों में मिलता है, और न्यायदर्शन के प्रभाव को प्रकट करता है। नंदीसूत्र प्रथम
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