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श्री जी की विद्वता से श्रीसंघ में धाक जम गई। चातुर्मास के पश्चात् जोधपुर से लौटते हुए देहली चांदनी चौक, महावीर भवन में वि.सं. 1961 में उपाध्याय जी का चातुर्मास हुआ। वहां के श्रीसंघ ने आपकी विद्वता से प्रभावित होकर कृतज्ञता के रूप में आप को “जैनधर्मदिवाकर" के पद से सम्मानित किया।
साहित्यरत्न-स्यालकोट शहर में स्वामी लालचन्द जी महाराज बहुत वर्षों से स्थविर होने के कारण विराजित थे। वहां की जनता ने कृतज्ञता के परिणाम स्वरूप उनकी स्वर्ण जयन्ती बड़े समारोह से मनाई। उस समय उपाध्याय श्री जी भी अपने शिष्यों सहित वहां विराजमान थे। वि.सं. 1993 में स्वर्णजयन्ती के अवसर पर श्रीसंघ ने एकमत से उपाध्याय श्रीजी को -साहित्यरत्न' की उपाधि से सम्मानित कर कृतज्ञता प्रकट की।
नन्दीसूत्र का लेखन-वि. सं. 2001 वैशाख शुक्ला तृतीया, मंगलवार को नन्दीसूत्र की हिन्दी व्याख्या लिखना प्रारंभ किया। इस कार्य की पूर्णता वि.सं. 2002 वैशाख शुक्ला त्रयोदशी तिथि को हुई।
आचार्यपद- वि.सं. 2003, चैत्रशुक्ला त्रयोदशी महावरी जयन्ती के शुभ अवसर पर पंजाब प्रान्तीय श्रीसंघ ने एकमत होकर एवं प्रतिष्ठित मुनिवरों ने सहर्ष बड़ें समारोह से जनता के समक्ष उपाध्याय श्री जी को पंजाब संघ के आचार्य पद की प्रतीक चादर महती श्रद्धा से
ओढ़ाई। जनता के जयनाद से आकाश गूंज उठा। वह देवदुर्लभ दृश्य आज भी स्मृति पट में निहित है जो कि वर्णन शक्ति से बाहर है।
श्रमण संघीय आचार्यपद-वि.सं. 2009 में अक्षय तृतीया के दिन सादड़ी नगर में बृहत्साधु सम्मेलन हुआ। वहां सभी आचार्य तथा अन्य पदाधिकारियों ने संवैक्यहित एक मन से पदवियों का विलीनीकरण करके श्रमणसंघ को सुसंगठित किया और नई व्यवस्था बनाई। जब आचार्य पद के निर्वाचन का समय आया, तब आचार्य पूज्य श्री आत्माराज जी महाराज का नाम अग्रगण्य रहा। आप उस समय शरीर की अस्वस्थता के कारण लुधियाना में विराजित थे। सम्मलेन में अनुपस्थित होने पर भी आप को ही आचार्यपद प्रदान किया गया। जनगण-मानस में आचार्य प्रवर जी के व्यक्तित्व की छाप चिरकाल से पड़ी हुई थी। इसी कारण दूर रहते हुए भी श्रमणसंघ आप को ही श्रमणसंघ का आचार्य बनाकर अपने आप को धन्य मानने लगा। लगभग दस वर्ष आपने श्रमणसंघ की दृढ़ता से अनुशास्ता के रूप में सेवा की और अपना उत्तरदायित्व यथाशक्य पूर्णतया निभाया।
पण्डितमरण-वि.सं. 2018 में आप श्री जी के शरीर को लगभग तीन महीने कैंसर महारोग ने घेरे रखा था। महावेदना होते हुए भी आप शान्त रहते थे। दूसरे को यह भी पता नहीं चलता था कि आपका शरीर कैंसर रोग से ग्रस्त है। आपकी नित्य क्रिया वैसे ही चलती रही, जैसे कि पहले चलती थी। सन् 1962 जनवरी का महीना चल रहा था। आस-पास विचरने
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