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२. दिग्दाह - जब तक दिशा रक्त वर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग-सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
३. गर्जित - बादलों के गर्जन पर दो प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे ।
४. विद्युत्-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। किन्तु गर्जन और विद्युत का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है । अतः आर्द्रा में स्वाति नक्षत्र पर्य अनध्याय नहीं माना जाता।
५. निर्घात् - बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है।
६. यूपक - शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को संध्या और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
७. यक्षादीप्त—कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े-थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है, वह यक्षादीप्त होता है। अत: आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे, तब तक शास्त्र स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
८. धूमिका कृष्ण - कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भ मास होता है, इसमें धूम्रवर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है, वह धूमिका • कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
९. महिका श्वेत- शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध महिका कहलाती है, जब तक वह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है।
१०. रज उद्घात-वायु के कारण आकाश में जो चारों ओर धूली छा जाती है, जब तक वह धूली फैली रहे, तब तक स्वाध्याय वर्जित है ।
उपरोक्त 10 कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं।
औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय
११-१२-१३. हड्डी, मांस और रुधिर - पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुंधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहां से उक्त वस्तुएं उठाई न जाएं, तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार 60 हाथ के आस-पास इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते
हैं।
इसी प्रकार मनुष्य सम्बंधी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है।
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