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नैष्कर्म्यसिद्धिः
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समझ लेना चाहिए । और जहाँ ज्ञान एवं कर्मका एक ही समय अथवा क्रमसे भी समुच्चय नहीं हो सकता, उस विषयको अब कहते हैं ।
स्थाणोः सतच्चविज्ञानं यथा नाऽङ्गं पलायने । आत्मनस्तत्त्वविज्ञानं तद्वनाङ्ग क्रियाविधौ ॥
जैसे यह चोर नहीं, किन्तु वृक्ष ठूंठ है, इस प्रकार से सूखे वृक्षका भागने में कारण नहीं होता। वैसे ही श्रात्माका तत्त्वज्ञान ( मैं कर्ता, हूँ, इस प्रकारका ज्ञान ) कर्म करनेमें निमित्त नहीं हो सकता ॥ ६१ ॥
यस्माद्गुणस्यैतत्स्वाभाव्यम् - यद्धि यस्याऽनुरोधेन
तत्तस्य गुणभूतं स्यान्न प्रधानाद् गुणो यतः || ६२ ॥
स्वभावमनुवर्तते ।
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६१ ॥
कर्म-प्रकरणाकाङ्क्षि ज्ञानं कर्म- गुणो यद्धि प्रकरणे यस्य तत्तदङ्ग क्योंकि कर्मप्रकरण में यदि ज्ञानका विधान किया अङ्ग हो सकता क्योंकि जो जिसके प्रकरण में विहित है
शास्त्र में माना गया है ॥ ६३ ॥
यथार्थज्ञान
भोक्ता - ब्रह्म
क्योंकि गुणका ( प्रधानका ) यह भाव है कि जो जिसके अनुरोधसे
जिसके स्वभावका अनुगमन करता है, वह पदार्थ उसका गुणभूत कहलाता है । और जो प्रधानका अनुगमन नहीं करता बल्कि उसका विरोधी है, वह उसका गुण (अङ्ग ) नहीं कहलाता ॥ ६२ ॥
यस्मात्
भवेत् । प्रचक्षते ॥ ६३ ॥
गया होता तो वह कर्मका
वह उसका ग्रङ्ग मीमांसा
यत्त्वविद्या
निहन्ति नः ।
स्वरूप लाभमात्रेण न तदङ्गं प्रधानं वा ज्ञानं स्यात्कर्मणः क्वचित् ॥ ६४ ॥
जो (ज्ञान) उत्पन्न होते ही हमारी विद्याको समूल नष्ट कर देता है वह ज्ञान कर्मका अङ्ग अथवा प्रधान नहीं हो सकता है ॥ ६४ ॥
समुच्चयवादिनाऽप्यवश्यमेव तदभ्युपगन्तव्यम् । यस्मात् -
आत्मज्ञानका कर्मके साथ समुच्चय माननेवालेको भी प्रमाणसे उत्पन्न होने के कारण ज्ञानको ज्ञानका नाशंक अवश्य ही मानना पड़ेगा। क्योंकि-
अज्ञानमनिराकुर्वज्ज्ञानमेव
न सिध्यति । विपन्नकारक ग्राम ज्ञानं कर्म न ढौकते ॥ ६५ ॥