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भाषानुवादसहिता
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होनी चाहिए ?' तो यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि प्रतिज्ञा आदि प्रमाणके अवयव हैं, इसलिए वहाँ परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रहती है । प्रत्यक्षादि तो स्वत: प्रमाण हैं, इसलिए उन्हें परस्परकी अपेक्षा नहीं है । यदि उनमें परस्परकी अपेक्षा से प्रामाण्य हो तब उनका स्वतः प्रामाण्य नष्ट हो जायगा ॥ ८६ ॥
प्रत्यक्षादिप्रमाणै
न च सुखदुःखादिसम्बन्धोऽवगत्यात्मनः गृह्यते, येन विरोधः प्रत्यक्षादिप्रमाणैरुद्भाव्यते । कथम् ? शृणुदुःखिताऽवगतिश्चेत्त्यान्न प्रमीयेत साऽऽत्मवत् । कर्मयेव प्रमा न्याय्या न तु कर्तर्यपि क्वचित् ॥ ८७ ॥
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[ आमाका दुःखादिके साथ सम्बन्ध प्रमाणान्तर से गृहीत होता है, यह मानकर मी उसके साथ विरोध होनेसे 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यका प्रामाण्य नष्ट नहीं होता, ऐसा पूर्व में कहा गया । अब यह कहते हैं कि - ] ज्ञानरूप आत्मा में सुख-दुःखादिका सम्बन्ध प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे गृहीत ही नहीं होता, जिससे प्रत्यक्षादिके साथ बेदान्तवाक्यके विरोध की शङ्का होती । यदि कहिए कि आत्मामें सुख दुःखादिका सम्बन्ध प्रत्यक्षादिसे कैसे नहीं गृहीत होता ? तो सुनिए—
यदि ज्ञानस्वरूप आत्मामें दुःखादि धर्म हैं, ऐसा मानोगे तब आत्माकी भाँति उनका भी ज्ञान नहीं होगा । क्योंकि धर्मीके ज्ञानके बिना 'धर्मका ज्ञान नहीं होता, ऐसा नियम है । धर्मीरूप आत्मा प्रमाका वियष कभी भी नहीं होता । क्योंकि प्रमामत्र ही कर्म अर्थात् ज्ञानसे भिन्न विषयको ग्रहण करता है, कर्तृ स्वरूपको ग्रहण नहीं करता । इसलिए कर्मकर्तृ विरोध प्रसङ्ग भी हो जायगा ८७ ॥
अभ्युपगमेऽपि च प्रसङ्ख्यानशतेनाऽपि नैव त्वं सम्भावितदोषान्मुच्यसे । अत आह---
प्रमाणबद्धमूलत्वाद् दुःखित्वं केन वार्यते । अग्न्युष्णवन्निवृत्तिश्चेन्नैरात्म्यं ह्येति सौगतम् ॥ ८८ ॥
[ पहले इस बातका निरूपण किया गया कि प्रमाणका विषय भिन्न-भिन्न है, एवं दुःखित्वादि, यदि आत्मा के धर्म हैं तो प्रमाणगम्य भी नहीं हो सकते । इसलिए प्रमाणान्तर के साथ विरोध न होनेसे वाक्य प्रसङ्ख्यानविधिपरक नहीं है । अत्र यह कहते हैं कि - ] दुःखादि धर्म आत्मा में प्रमाणसे जाने जाते हैं और उनके साथ विरोध होने से वाक्य भी प्रमङ्खयान विधिपरक है, ऐसा यदि मान भी लिया जाय तो भी सहस्रों प्रसङ्ख्याने —— ध्यानों श्रर्थात् उपासनाओ से भी दुःखरूप संसारबन्धन से आत्माका छुटकारा नहीं
१ प्रमाणैरुद्धाव्यते, ऐसा पाठ भी है।
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