Book Title: Naishkarmya Siddhi
Author(s): Prevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
Publisher: Achyut Granthmala Karyalaya

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Page 190
________________ १६४ नैष्कर्म्यसिद्धिः सम्यग्ज्ञानशिखिप्लुष्टमोहतत्कार्यरूपिणः । सकृन्निवृत्ते ध्यस्य किं कार्यमवशिष्यते ॥ ५९॥ तत्त्वज्ञानरूप अग्निसे जिसका अज्ञान और उसका कार्य दग्ध हो चुका है, बाध करने योग्य सम्पूर्ण प्रपञ्च एक बार ही निवृत्त हो चुका है, उस आत्माका फिर क्या कर्तव्य अवशिष्ट है ? ( अतएव ऐसे पुरुषको फिर कोई विधि प्रेरित नहीं कर सकती, यह ठीक ही कहा है। ) ॥ ५६ ॥ वास्तवेनैव वृत्तनाऽविद्यायाः प्रध्वस्तत्वान्न किञ्चिदवशिष्यत इत्युक्तः परिहारः । अथाऽपरः साम्प्रदायिकः निवृत्तसपः सर्पोत्थं यथा कम्पं न मुञ्चति । विध्वस्ताऽखिलमोहोऽपि मोहकार्य तथात्मवित् ॥ ६० ॥ यथार्थरीतिसे विचार करनेपर अविद्याके बिलकुल ही नष्ट हो जानेके कारण ज्ञानीका किञ्चित् भी कर्तव्य अवशिष्ट नहीं है, ऐसा परिहार कर दिया। अब जीवन्मुक्ति पक्षको स्वीकार करके सम्प्रदायप्रसिद्ध दूसरा भी परिहार बताते हैं जैसे रज्जुके तत्त्वज्ञानसे सर्पभ्रान्तिकी निवृत्ति हो जानेपर भी उससे उत्पन्न हुए भय. कम्पादिसे कुछ काल तक पुरुष युक्त ही रहता है। वैसे ही आत्मज्ञानी अविद्या और उसका सम्पूर्ण कार्य बाधित होनेपर भी कुछ देर तक, प्रारब्ध फलके भोग पर्यन्त, संसारकार्यों से युक्त रहता है ॥६०॥ यतः प्रवृत्तिबीजमुच्छिन्नं तस्मात्तरोरुत्खातमूलस्य स्पर्शेनैव' यथा क्षयः । तथा बुद्धात्मतत्त्वस्य निवृत्त्यैव तनुक्षयः ॥ ६१॥ चूंकि सारे प्रवृत्तिके कारण अविद्या, काम आदि तत्वज्ञानसे उच्छिन्न हो जाते है, अतएव जिस बृक्षकी जड़ कट गई हो, उसका क्षय जैसे हस्तके स्पर्शसे ही हो जाता है। ऐसे ही ज्ञानीके प्रातिभासिक शरीरादिका क्षय केवल निवृत्तिसे ही हो जाता है ॥६१ ॥ अथालेपकपक्षनिरासार्थमाहबुद्धाऽद्वैतसतत्त्वस्य यथेष्टाचरणं यदि । शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥ ६२॥ . यदि कोई कहे कि "तस्ववेत्ताकी प्रवृत्ति विधि-निमित्तक न मानी जाय तो १-शोषेणैव, ऐसा पाठ भी है।

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